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________________ ( ८४ ) श्री जैन नाटकीय रामायण | अपना हित सोच लिया । वैराग्य को धारण किया किन्तु मुझे ... ( श्राखों में धासू पोंछ कर ) हमेशा के लिये रुला गये । । हैं। थाप भी नारद ---- माताजी थाप व्याकुल क्यों होती अपना कल्याण कीजिये । शान्ति पूर्वक रह कर धर्म चिन्तवन 1 कीजिये । जब स्त्री का पती मर जाता है । तव उसे दुःख होता है किन्तु गुरुजी धर्म मार्ग पर लग कर अपनी श्रात्मा से कर्म मैल धो रहे हैं। किसी के जीते जी उसका रन्ज करना, यह उचित नहीं । आप बुद्धिमती हैं। बुद्धी से काम लीजिये । माता- मैं बहुत अपने कलेजे को सम्हालती हूं किन्तु ( रोने लगती है ) नारद - मित्र पर्वत मुझे कार्य वश जाना है तुम माता · जी को धैर्य बंधयो । मतानी प्रणाम । ' माता - जाओ पुत्र, मैं न रोऊंगी। ( नारद चला जाता है । पर्वत और माता रह जाते हैं ) पर्दा गिरता है । दृश्य समाप्त अंक प्रथम - दृश्य दूसरा | एक पचास वर्ष की आयु वाले भारी बदन के बाबूजी आते हैं। जो कि अप टू डेड फैशन में हैं । चश्मा लगाये हुवे हैं । टोप पहने हैं )
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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