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________________ ( २८६ ) श्री जैननाटकीय रामायण कारण जितने भी राजा लोग श्रीरामचन्द्रजी की शरण में आते हैं। सब से मित्रता का व्यवहार होता है। विभीषण-(श्राकर ) हे राम मुझे शरण दीजिये ? राम---( उसको हृदय से लगा कर ) मित्र विभीषण ! तुम्हारे भाई ने जो तुम्हारे साथ व्यवहार किया उससे मुझे दुःख होता है । किन्तु कोई बात नहीं तुम धर्मात्मा हो । न्याय पक्ष पर हो । तुम्हारी श्रवश्य जोत होगी। विभीषण---माई का अपमान मेरे हृदय में खटक रहा है। मैं तीस अक्षौहिणो सेना से तुम्हें सहायता देकर उसका नाश कराउंगा । सीता वहां पर ब्याकुल हो रही है। जल्दो से लंका पर चढ़ाई करके रावण को मार कर उसे बन्धन से छुड़ाइये । पर्दा गिरता है (लाधू और ब्रह्मबारी आते हैं) साधु-ब्र. जी मैं आपसे एक बात पूछता हूं। ब्र -अवश्य पूछिये । सा०---रावण इतना बलवान था और सीता एक अबला थी रावण के सामने कुछ भी नहीं थी । रावण ने उस पर . बलात्कार क्यों नहीं किया। ब्र०-बड़े पुरुष अपनी प्रतिज्ञा के दृढ़ पालक होते हैं ।
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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