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________________ ( २५२) श्री जैन नाटकीय रामायण - - - - राम-लक्ष्मण तुम लौट आये ? देखें तुम्हारे कहाँ कहाँ घाव लगे हैं ? यह तुम्हारे साथी कौन हैं ? लक्ष्मण-~-भाई साहब आपके चरणों के प्रशाद से मैंने इस चन्द्रोदय के पुत्र विराधित की सहायता से बहुत सुगमता से युद्ध जीत कर खरदूषण को मार दिया । आप पहले बताइये कि माता सीता कहां है ? . राम--सीता को मैं अकेली छड़ गया था। न मालूम कौन उसे यहां से उठा लेगया । लक्ष्मण-प्राह हमारे क्या बुरे भाग्य हैं । एक पर एक आपत्तियां भाती हैं । न मालूम कौन दुष्ट उन्हें हर लेगया ? विशधित ---स्वामी ! आप दोनों किसी प्रकारे का शोक न कीजिये मालूम होता है कि उन्हें कोई · विद्याधर ही हर ले गया है मेरे ऊपर आपने बहुत उपकार किया है। मैं उनका पता अवश्य लगा कर उन्हें आपसे मिलाऊंगा। विद्याधर से विद्याधर नहीं छिप सकता। लक्ष्मण-विराधित ! तुम यदि सीता का पता लगाआगे तो अत्यन्त उपकार करोगे । भाई साहब सीता के विरह में अत्यन्त दुखी हो रहे हैं । यदि इन्होंने प्राण त्याग दिये तो मैं भी अग्नी में भस्म होकर अपने प्राण तज दूंगा । यदि तुम मेरा,
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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