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________________ ऊपर विचरने लगे. जबउनोंकों, केवलज्ञान, उत्पन्न हुआ, तब तिनोंने प्रजाकों धर्मो पदेशदीया- इन अवसर्पिणी कालमें, प्रथम, ऋषभदेवसे ही इस भास्त वर्षमें जैन धर्म प्रचलित हुआ, इसी हेतुसें श्री ऋषभदेवसे, इस इतिहास (तवारिख) रूप वृक्ष का. लिखना शुरू कीया है. इनोंके, ८४, गणधर, और, ८४, गच्छ हुए. इनोंका विशेष वृत्तांत जंबूदीप प्रज्ञप्ति, आवश्यक सूत्र, त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरितादि ग्रंथों में है. अ-श्री ऋषभदेव स्वामीका शिष्य मरिची जव संयमपालने सामर्थन हुआ,तब तिसने स्वकल्पना सें परिव्राजकका वेष धारण करा. तिसका शिष्य कपिलमुनि हुआ, तिसने अपने आसुरिनामा शिष्यकों पंचवीश (२५) तत्वोंका उपदेश करा. तब आसुरिने षष्टि तंत्रनामा अपने मतका पुस्तक स्चा, तिस आसुरिका भारि नामा शिष्य हुआ, तिस पीछे तिस मतके ईश्वर कृष्णादि आचार्य हुए.तिनमें एक 'संख' नामा बहुत प्रसिद्ध आचार्य हुआ, तिसके नामसें कापिलमतकों लोक 'सांख्यमत' कहने लगे. यह सांख्यमत निरीश्वरी
SR No.010504
Book TitleJain Mat Vruksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1900
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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