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________________ ७६ श्री जैनहितोपदेश भाग- २. जो. दुःखी थाय छे, तेनो श्रेष्ट उपाय ए छे के तेवे वखते हिंमत नहि हारतां धीरजथी आवेली आपत्तिनी सामा थनुं, एटले के युक्तिथी आवेली आपत्तिने उल्लंघी जवा जेटयुं डहापण वापरवा भूलवुं नहि. .- जे आवेली गमे तेवी आपत्तिने हिंमतथी अने डहापणथी उल्लं'घी' जाय छे, जे तेवे वखते धीरज राखीने स्वधर्म - न्याय, नीति, सत्य, प्रमाणिकता विगेरेने तजतो नथी तेने अंते आपत्ति संपत्ति रुप थाय छे. त्यारे जे प्रथमथीज आपत्तिने संपत्तिरूप मानीने भेटे छे अने स्वधर्म - कर्तव्यमां सदा चूस्त रहे छे तेनुं तो कहेवुज शुं ? · केटलाक मुग्ध अज्ञानी लोको मूएलानी पछवाडे बहु बहु - शोक - विलाप करे छे अने एम करीने उभय अर्थथी चूके छे तेमज स्वपरनी नाहक पायमालीना कारणिक थाय छे, ते खरेखर धिकारपात्र छे. सूली माणस स्व स्वकरणी प्रमाणे परलोक गमन करी सुख दुःखना भागी थाय छे अने एज नियम हवे पछी परलोक गमन करनार हाल जीवता माणसने माटे छे तो मरनार माणसनी शुभा- शुभ करणी उपरथी घडो लइने स्वचरित्रनो भविष्यने माटे विचार. करवाने वदले नाहक अरण्यमां रुदननी पेरे मरनारनी पछाडी, आक्रंदनादिक करवाथी शुं वळवानुं छे ? तेथी तो नथी थवानुं मरनारनुं हित के नथी थवानुं हाल जीवतानुं हित, पण गैरफायदो अने
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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