SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ७५ सम्यग् ज्ञानी-विवेकी आत्माने उक्त मोह-शोक एटलो सतावी शकतो नथी. कचित् क्षणमात्र अवकाश मेळवी ज्ञानीने पण शोक छळवाने जाय छे, परंतु अंते तो विवेक योगे तेनोज पराजय थायछे. जे जे कारणो मुग्ध अज्ञानी जनोने मोह-शोकनी वृद्धीनां छे. ते ते ज्ञानी-विवेकीने मोहादिकनी हानिनां एटले के वैराग्य वृद्धिनां. ज थाय छे. पूर्वे अनेक सतीओ विगेरेने एवां कारणो संसार चक्रमां अने. कशः मळ्यां छे.. पण परिणामे तेवां कारणोथी तेमने लाभज थयोछे. तेवा ज्ञान विवेक के वैराग्यनी गंभीर खामीथी आज काल मुग्ध अज्ञानी लोको उक्त मोह-शोकने वश पड़ी भारे दुःखी थायः छे, थता देखाय छे, एटलुंज नहि परंतु पोतानी अनार्य टेवथी अन्य जनोने पण दुःखी करे छे. मूर्ख मावापो दीर्घदृष्टिनी खामीथी या स्वार्थ अंधताथी वाळलंग्न, कजोडां, कन्याविक्रय अने विधर्मीनी साथे पोतानां पुत्र पुत्रीने परणाववाथी तेमने जन्मांत दुःख दरियामां डूवाववाना पातकी थाय, छे. उक्त दुःखनो अंत बहुधा मावापनी समज सुधरवाथी आववा संभवे छे. कंइ पण आपत्ति आवी पडतां धीरजथी तेनी सामा थइने तेनो.क्षय करवाने बदले मुग्ध जनो अधीरां थइने उलटयं वधारे
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy