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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ७१ . धर्मार्थी माणसे प्रथम पात्रता मेळववाने माटे मार्गानुसारी थकुं: युक्त छे. अने अक्षुद्रतादिक उत्तम गुणोनो अखंड अभ्यास करीने: क्षुद्रता, निर्दयता, शठता, अप्रमाणिकता, अनीति, अन्याय, असत्या. अहंकार, कृतघ्नता अने स्वार्थ अंधता विगेरे अनार्य दोषोने प्रथमः जरुर देशवटो देवो जोइये. आ प्रमाणे अनुक्रमे अधिकार पामीने सत् समागमनी टेव पा-- डीने तेमांथी वखतो वखत मध्यस्थपणे सत्यने समजी सत्य ग्रहण. कर जोइये. आ प्रमाणे वधती जती सत्य तत्त्वरुचिथी अने तत्त्व ज्ञानथी सम्यक्त्व अपरनाम समकित या सम्यग् दर्शननी प्राप्ति थाय छे. आनुं नामज तत्त्व श्रद्धा, तत्त्व दर्शन या विवेक ख्याति कहेवाय छे. तत्त्व श्रद्धारुपी विवेक दीपक घटमां प्रगटया पछी अनुक्रमे. तत्त्वाचरण-सन्मार्ग सेवन करवा माटे सतत प्रयत्न करवो जोइये, अने तेवो दृढ अभ्यास करीने सद्गुरु समीपे समकित मूळ उक्त अहिंसा, सत्य, अस्तेयादिक व्रतो यथाशक्ति आदरवां जोइये. तेमां पण प्रथम मांस, मदिरा, शीकार, परदारा गमन, वेश्यागमन, चोरी, अने जूगाररुप सप्त व्यसनोने तो उभयलोक विरुद्ध जाणीने अवश्य परीहरवां जोइये. तेमज मध, मांखण भूमिकंद अने रात्रिभोजन: विगेरे पण वर्जवां जोइए.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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