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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. ६३ रोग पैदा थाय, जो कीडी या धनेडा विगेरे क्षुद्र जीवो आवे तो बुद्धि नष्ट थाय, मांखी आवे तो वमन थाय, वाळ आवे तो कंठ (स्वर) भंग थाय, अने झेरी जीवोनां विष गरलादिक आवे तो पोताना त्राण पण जाय. एम समजीने स्वदेहनी रक्षा माटे पण रात्रि भोजननो सर्वथा त्याग करवो उचित छे, परमार्थ बुद्धिथी तेनो त्याग करवाथी तो असंख्य जीवोने अभयदान देवाना अनंत पुन्यना भागी थइने उभयलोकमां उत्कृष्ट सुख पामी शकाय छे, आर्थी रात्रि भोजननो सर्वथा त्याग करवा शास्त्रकारोए भार दइने कर्तुं छे. शास्त्र संबंधी पवित्र आज्ञानो भंग करीनेज मूढमतिजनो रात्रिभोजन कर्या करे छे, तेओ पुण्य सामग्रीने निष्फळ करीने, करेला क्लिष्ट कर्मना योगथी भवान्तरमां घूड, नोळीया, साप, मार्जार, अने गरोळी जेवा नीच अवतार पामी नरकादिकनी महाव्यथाने पामे छे, रात्रि भोजनने शास्त्र नीतिथी तजनार भाइ व्हेनोए सूर्य अस्त पहेलां वे घडीथी मांडीने सूर्योदय पछी वे घडी सुधी भोजननो त्याग करवो जोइये, अने एम करवाथी एक मासमा १५ उपवासनो लाभ सहज मळी शके छे. तेमज जो 'गंठसहियं ' प्रमुख पञ्चख्खाण पूर्वक प्रतिदिन एकाशन अथवा व्यशन करवामां आवे तो एक मासमा २९ या २८ - उपवासनो अवश्य लाभ मळे छे. Th
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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