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________________ ६२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. धान्यनी पेरे लूखीज लागे छे अने भावना युक्त ते अमृत समान स्वादिष्ट लागे छे. एथीज कनुं छे के तद्हेतु अने अमृत क्रिया शीघ्र मोक्ष सुख अर्पे छे. २७. रात्रि भोजननो त्याग कर. सूर्य अस्त थया पछी अन्नादि भोजन मांस समान अने जळ पानादि रुधीर समान कां छे तेथी ज्ञानी पुरुषोने ते वर्ज्यज छे. दिवसमां पण भोजन करतां अनेक सूक्ष्म जीवो उडतां भोजनमां आवी पडे छे तो पछी रात्री वखते तो तेवा असंख्य जीवो भोजनमां आवी पडे एमां तो कहेवुज शुं ? आथीज रात्रि भोजन वर्ज्य छे. दिवसमां पण रसोइ करतां उपयोग नहि राखवाथी या भोजन करती वखते गफलत करवाथी कोइ झेरी जीव के तेनी झेरी लाळ मांहे पडया होय तो तेथी भोजन करनारना जीवनुं पण जोखम थाय छे. जो दिवसमां पण बेदरकारीथी आटलो भय रहे छे तो रात्रिमां एवा अवनवा वनावो स्वभाविकज बनवा पूरतो भय राखवो जोइये. जो भोजनादिक करतां भोजनमां जू अवी जाय तो जळोदर रोग पेदा थाय, जो करोळीयो वगेरे आवे तो लूता ( कोढ ) आदिक •
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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