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________________ ३७ - श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. क्षमा सार चंदनरसें, सिंचो चित्त पवित्र दया वेल मंडप तळे, रहो लहो मुख मित्र. देत खेद वर्जित क्षमा, खेद रहित सुखरांज; तामे नहि अचरिज कछु, कारण सरिखो काज. क्षमा खड्गः करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति।। अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवो पशाम्यति. मृदुता कोमळ कमलथे, वज्रसार अहंकार; छेदतहे एक पलकमे, अचरिज एह अपार. माया सापणी जगडसे, ग्रसै सकळ गुणसार; समरो रुजुता जांगुली, पाठ सिद्ध निरधार. - कोउ सयंभू रमणको, जो नर पावै पार; सोभी लोभ समुद्रको, लहै न मध्य प्रचार. मन संतोष अगस्तिकुं, ताके शोष निमित्त नितु सेवो जिनि सो कियो, निजवल अंजलि मित्त.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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