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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. द्वेष या इर्ष्या थकी क्रोध अने मान पेदा थाय छे तेमज काम या रागान्धताथी माया अने लोभ पेदा थाय छे अने जेम जेम तेमने तेथी पोषण मळतुं जाय छे तेम तेम तेओ वृद्धि पामता जाय छे. ३६ बाह्य अने अंतर वे प्रकारना शत्रुओमां अज्ञानी लोको जेना प्रति बैरभाव राखे छे ते बाह्यशत्रु छे, अने ज्ञानी पुरुषो जेमनो क्षय करवा अहोनिश यत्न कर्या करे छे ते अंतरंग शत्रुओ - काम, क्रोधादिक छे. बाह्यशत्रु उपर कषाय करवो ते अप्रशस्त छे. अने अंतरंग शत्रुओ उपर कषाय करवो ते प्रशरत कषाय कहेबाय छे, प्रशस्त कषायना योगे अप्रशस्त कषायनो अनुक्रमे अभाव थाय छे, तेथी प्रशस्त कषाय अप्रशस्त रागादिने दूर करवा अमोघ उपाय तुल्य छे. अंते तो सर्व प्रकारना कपाय सर्वथा परिहरवाथीज परमपद प्राप्त थाय छे, ज्यां सुधी लेश मात्र राग, द्वेषादिक विकार होय त्यां सुधी वीतरागता होइ शके नहि अने ते विना अक्षयपदना अधिकारी थइ शकायज नहि. माटे वीतराग दशाने प्रगट करवा रागद्वेष अने कषाय मात्रनो क्षय करवाने सतत प्रयत्न करवो जोइये, क्षमा गुणवडे क्रोधनो, विनय-नम्रता गुणथी माननो, सरलता - गुणथी- माया- कपटनो, अने संतोष गुणथी लोभनो पराजय करवो. कर्तुं छेके --
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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