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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ॥ रहस्यार्थ ॥ १३१ १ - २. अक्षय अने अव्यावाध एवं मोक्षसुख मेळवी आपनार श्रेष्ठ ज्ञानसंपन्न कोण थइ शके छे ? तेनु समाधान करे छे. जे सर्वथा उपाधि मुक्त थइ सहज गुणसंपत्तिवेज सार लेखी तेनेज ग्रहे छे, मांज मन थाय छे, तेमांज स्थिरता करे छे, इतर कोई वस्तुमां मुंझातो नयी, वीजा संकल्प-विकल करतोज नयी पण शान्त चिती स्वभावमाज रसे छे, मन अने इंद्रियो उपर जेणे जय मेळव्यो छे पण तेमने पराधीन थइ रहेतो नयी, वाह्यभावनो जेणे त्याग कर्यो छे, अने अंतरभाव जेने जागृत थयो छे, तेनीज पुष्टि माटे जे प्रयत्न करे छे पण बीजी नकामी वावतमां राचतो नयी, सहज संतोषी छे, एंटले जेणे विषयादि तृष्णाने छेदी छे, जे जगतथी न्यारोज रहे छे, तेमां लेपातो नयी, जे कोइनी आशा राखतो नथी, केवळ निःस्पृह थइ रहे छे, जे सारासारने सारी रीते समजे छे अने समजीने असारना परिहार पूर्वक सार मार्गने संग्रहे छे, सुख दुःखमां समदर्शी छे, मां हर्ष विषाद करतोज नथी, जे भय तजी निर्भयपणे स्व-इष्ट साधे छे, जे कदापि स्व-लाघा के परनिन्दा करतोज नथी जे तत्त्वहोवाथी वस्तु वस्तुगतेज जाणे-जोवे छे, जे घटमांज सकल समृद्धि रहेली माने छे, जे कर्मनुं स्वरूप यथार्थ समजीने शुभाशुभं कर्मना उदयमा साम्य ( समता ) धारे छे, पण मनमां ते संबंधी
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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