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________________ श्री जैनहितोपदश भार्ग ३ जो. पुरुषोन जगतमा जयवंता वर्ते छे. एकान्त पक्षन सर्व कदाग्रह अने दुःखनु मूळ छे. एम समजीनेज सर्व नयाश्रित सत्पुरुषोज एकान्त नहिं खेंचतां सर्वत्र ज्ञान अने क्रिया, उत्सर्ग अने अपवाद, तथा निश्चय अने व्यवहारनो स्वीकार करे छे. इतिशम. ॥ उपसंहार ॥ पूर्णो ममः स्थिरोऽमोहो, ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः॥ यागी क्रियापरस्तृप्तो, निर्लेपो निस्पृहो मुनिः ॥१॥ विद्याविवेक संपन्नो, मध्यस्थो भयवर्जितः ॥ अनात्म शंसकस्तत्त्व, दृष्टिः सर्वसमृद्धिमान् ॥२॥ ध्याता कर्मविपाकाना, मुहिनो भववारिधः ॥ लोक संज्ञाविनिर्मुक्तः, शास्त्रहर निष्परिग्रहः ॥३॥ शुद्धानुभववान योगी, नियागप्रतिपत्तिमान् ।। भावा ध्यान तपसां, भूमिः सर्व नयाश्रयः॥ ४॥ स्पष्टं निष्टंकितंतत्त्व, मष्टकैः प्रतिपत्तिमान् ॥ मुनिमहोदयज्ञान, सारं समधिगच्छति ॥ ५॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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