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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १८१ आ प्रमाणे ए एकवीश गुणेोनुं कंइक सहेतुक वर्णन 'धर्मप्रकरण' ग्रंथने अनुसार करवामां आव्युं छे. ए उपर वर्णवेला गुणो जेमणे संप्राप्त कर्या छे ते भाग्यशाळी भव्य जनो धर्मरत्नने लायक थाय छे. ए एकवीश गुण संपूर्ण जेमने प्राप्त थया छे ते उत्कृष्ट रीते लायक छे. चतुर्थ भागे न्यून गुणवाळा भव्य मध्यम रीत्या लायक छेने अर्धा भागथी न्यून गुणवाळा भव्यो जघन्य भागे लायक छे. परंतु तेथी पण न्यून गुणवाळा होय तेतो दरिद्रयाय-अयोग्य समजवाना छे. एम समजीने सर्वज्ञ भाषित शुद्ध धर्मना अभिलाषी जनोए जेम वने तेम उक्त गुणोमां विशेषे आदर करवो योग्य छे. कारण के पवित्र चित्त पण शुद्ध भूमिमांज शोभे छे अने भूमि-शुद्धि उक्त गुणोवडेज थाय छे. उक्त गुण भूषित भव्य सच्चोए शुद्ध धर्मनी प्राप्ति माटे शुद्ध संयमधारी सद्गुरु पासे शुश्रूषा पूर्वक धर्मनुं स्वरुप सांभळवा अने तेनुं मनन करवा साथै यथाशक्ति तेनुं परिशीलन करवाने प्रयत्न सेववो जोइये. ते धर्म मुख्यपणे वे प्रकारनो छे. देशविरति धर्म अने सर्व विरति धर्म. देशविरति धर्मना अधिकारी गृहस्थ लोक होइ शके छे अने सर्व विरति धर्मना अधिकारी साधु मुनिराज होइ शके छे. स्थूल थकी हिंसा, असत्य, अदत्त, मैथुननो त्याग अने परिग्रहनुं प्रमाण करवारुप पांच अणुव्रत, दिग् विरमण, भोगोपभोग विरमण अने अनर्थदंड विरमणरुप त्रण गुणवत तथा सामायक, देशावगासिक, पौ
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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