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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. रहेg अने पूर्वोक्त प्रमत्त योगने तजीने अप्रमत्तपणे शास्त्रविहित मार्गेज चालीने स्वपरनुं एकांत हित थाय एवी अनुकूल प्रवृत्तिज सेववी ते अहिंसा कहेवाय छे. आवी साची अहिंसाज सर्व भयहरी अभयकरी अने कल्याणकारी कही शकाय. चारित्र-खरेखर उक्त स्वरुपवाळी अहिंसाज सर्व दुःख हरनारी होवाथी परम सुखदायी अने सर्व कल्याणने करनारी होवाथी 'उत्कृष्ट मंगळरुप छे. आंची अघहर अहिंसाज जगत मात्रने सेवन करवा योग्य छे. हवे उक्त अहिंसाने उपष्टभकारी संयमर्नु कंडक स्व'रुप समजावशो. सुमति-"संयमनं संयमः" स्वच्छंदपणे चालता आत्मानो निग्रह करवो, तेने खोटा मार्गथी निवर्तावी साचा मार्गमा जोडवो ते संयम कहेवाय छे. हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्म तथा मूर्छा (परिग्रह ) नो सर्वथा के देशथी (जेटले अंशे वने तेटले अंशे) त्याग करी अहिंसादि ५ महाव्रतोनो अने तथापकारनी शक्ति न होय तो ५ अणुव्रतोनो स्वीकार करी तेमनो यथार्थ आदर-निर्वाह करवो, स्वेच्छा सुजव वर्तती स्पर्शनेंद्रिय विगेरे पांचे इंद्रियोनो निग्रह करवो, क्रोधादिक कषाय चतुष्कनो जय करवो अने मन, वचन, कायारूप योगनयनी पाप प्रवृत्तिनो त्याग करीने तेमनी गोपना-गुप्ति करवी. ए प्रमाणे संयमनां १७ भेद कह्या छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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