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________________ १५२ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. सुमति-प्रथम हुं आपने 'अहिंसा' नु कंइक सविशेष स्वरुप' समजावु छु. में आपने पहेला पण जणाव्युं छे के 'प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा' तेथी तेमों कहेला प्रमत्तयोग शी रीते थाय ते पण जाणवू जोइये. 'मद्य' (Intoxication) विषय (sensual desires) कषाय (Wrath arrogance ete.) 'निद्रा ( Idleness) अने विकथा ( false gossips) वडे ' राग झेप युक्त कलुषित मन वचन अने कायानुं प्रवर्तन थाय ते प्रमत्त योग कहेवाय. एवा प्रमत्तयोगथी-आत्मा पोताना कर्त'व्यथी भ्रष्ट थाय छे. तेथी ते शास्त्र संबंधी विहित मार्गनो लोप करे छे. शास्त्रनो विहित मार्ग मूळ रुपमा आवो छे के मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्टवत्; आत्मवत् सर्व भूतेषु, यः पश्यति स पश्यति. परस्त्रीने पोतानी माता तुल्य लेखवे, परद्रव्यने धुळना ढेफां जेवू लेखवे अने सर्व प्राणी वर्गने आत्म समान लेखवे तेज खरो ज्ञानीविवेकी के शास्त्र श्रद्धालु छे, प्रमत्तयोगथी कोई पण पाणी आवा पवित्र मार्गथी पतित थाय छे, अने स्वपरने भारे नुकसान करे छे, तेनुं खरं नाम हिंसा छे. एवी हिंसाथी पापनी परंपरा वधती 'जाय छे अने तेथी संसार-संतति वधे छे. आथी पोताने तथा परने अधोगतिनुं वारंवार कारण वने छे. एवी दुःखदायक हिंसाथी दूर
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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