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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. पण तरवानी अनुकूल क्रिया कर्या विना सामे तीरे जइ शकातुं नथी ज तथा भूख लाग्ये छते भक्षण क्रिया कर्या विना शान्ति थती नथी, 'तैम खरा-चारित्रना अर्थीजनोने पण शुद्ध चारित्रनी अनुकूल क्रिया करवानी खास जरुर छे जेम बे चक्र विना गाडी चालती नथी तथा वे पांख विना पक्षी उडी शकतुं नथी तेम सम्यग् ज्ञान अने क्रिया विना कार्यसिद्धि थइ शकती नथी. आथी आपने समजायुं हशे के सम्यग क्रिया (सद्वर्तन) विनानुं एकलं ज्ञान लूलू-पांगळं छे. अने सम्यग ज्ञान (विवेक) विनानी केवळ क्रिया पण आंधळी छे, माटे मोक्षार्थीजनोए ते वनेनी साथैज सहाय लेवी जोइए. चारित्र०-हवे मने समजायु के केवळ लूखी कथनी मात्रथी कार्य सरवानुं नथी. ज्यारे कथनी प्रमाणे सरस करणी थशे त्यारेज कल्याण थवानुं छे.. . . . . • सुमति–आपनी आवी सहेतुक श्रद्धाथी हुँ वहु खुशी थाउछु, अने इच्छु छु के आपने वतावेलो उपायक्रम हवें सफळताने 'पामशे. परंतु कुमतिनो संग सर्वथा वारंवानो अने अक्षयं सुखना अवंध्य कारणभत सत्य चारित्र धर्मनी योग्यता पामवानो जे उपाय क्रम में आपने वात्सल्य भावथी बताव्यों छे तेनो पूर्ण प्रीतीथी आदर करवामां आप लगार पण आळस करशो नहिं एवी मारी विनंति. छ. . . . . . . ........ + kthu ter: "
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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