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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो गम योगे पूर्वे में आपने जेवो उपाय क्रम बताव्यों छे तेवोज क्रम प्राप्त थाय-समज पूर्वक तेनो स्वीकार थाय-त्यारेज जीव कुमतिनो संग तजवाने शक्तिवान् वने, ते विना कदापि ते तेनो संग तजी. सके नहि. - चारित्र०-सारे उपर बतावेलो उपाय क्रम जाणवा मात्रथी कंइ वळे नहिं शृं? समज पूर्वक तेनो स्वीकार करवायीज इष्ट कार्यनी संफळता थायें ? मुमति-खरेखर उक्त क्रमनो सारी रीते आदर करवायीज इष्टः कार्यनी सिद्धि या शके छ, पण तेना जाणवा मात्रथी कंइ इष्ट सिदि थइ शकती नथी. चारित्र-शाखमां ज्ञाननीज मुख्यता कही छे तेनु केम ? सुमति ते वात सत्य छे पण तेनो अंतर हेतु ए छे के स्व क-- तव्य कार्यने प्रथम सारी रीते जाणी-समजीने सेव्यु होय तो तेथी शीघ्र शुभ फळनी प्राप्ति थइ शके छे. बिलकुल समज्या विना करेली अंधकरणी तो उलटी अनर्थकारी थाय छे. माटे समजीने स्व कर्तव्य करवाधीज सिद्धि छे. चास्त्रि-अन्य धर्मावलंबी लोको तो ज्ञान मात्रथी पण सिद्धि, माने छे ? समति-तेओनी तेवी मान्यता मिथ्या छे, तरतां आवडतुं होय,
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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