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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. करीने कोइ पण जीव कदापि पण ते ज भवमा सर्व घाति-अघाति कर्मनो सर्वथा अंत करीने अक्षय अविनाशी.एवं मोक्ष सुख साधवाने समर्थ थइ शके नहि अने तेथी ज आवो मनुष्य भव देवने पण दुर्लभ कह्यो छे. अर्थात् सम्यग् दृष्टि देवो पण मोक्ष गतिना द्वार रुप मनुष्य भवनी इच्छा करे छे अने तेवो मानव भव पामीने तेने सार्थक करवा समजमां आव्या बाद बनतो प्रयत्न पण करे छे. तेवो मानव भव साक्षात् पामीने मोक्षार्थी जनाए मोक्ष साधनमा क्षण मात्र पण प्रमाद करवो योग्य नथी. प्रमादज प्राणीयोनो कट्टामा कहो दुश्मन छे, जेथी लोको प्राप्त सामग्रीने पण निष्फळ : करी नांखे छे. प्रमादने परवश पडी जे लोको मानवभवने निष्फळ करे छे तेमने आ संसार चक्रमां परिभ्रमण करतां ते पुन: प्राप्त थवो अति दुर्लभ छे. आथीज उत्तराध्ययन सूत्रमा आ मानवभव दश दृष्टांत दुर्लभ कयो छे. एटलुंज नहि पण भगवान् श्री वीरप्रभुए पोताना मुख्य शिष्य श्री गौतम- गणधरने संबोधीने प्रगट रोत कमु छ के 'एक - क्षणमात्र पण प्रमाद नहि करवो'-आ व क्य केटलुं वधु अर्थ सूचक । छे ? तेमाथी आपणने केटलो वधो वोध लेवानो छ ? छतां जो आ-. . पणे सुखशील थइने प्रमादाचरण नजशं. नहिं तो छेत्रट आपणने के. टखें वधुं शोचवू पडशे? तेनो ख्याल पृण आवदो अत्यारे मुश्कलंछ: -
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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