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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां S S की दृष्टि में मांसाहार करने वाले मानवीय जघन्यता की सीमा को पार कर हिंसक पशुओं की कोटि में आजाते हैं। जैन धर्म में मांसाहार को नरक का कारण बताया गया है और इसे महा भयंकर सप्तव्यसनों में गिनाया गया है। मांसहार मनुष्य के कोमल हृदय की कोमल भावनाओं को नष्ट भृष्ट कर उसे पूर्णतया निंदय और कठोर बना देता है। मांस किसी खेत में नहीं पैदा होता, वृक्षों पर नहीं लगता, आकाश से नहीं बरसता वह तो चलते फिरते प्राणियों को मारकर उनके शरीर से प्राप्त किया जाता है । जब आदमी पैर में लगे हुए छोटे से काँटे के दर्द को भी सहन नहीं कर सकता, रात भर छटपटाता रहता है तब मला दूसरे मूक प्राणियों के गर्दन पर छुरी चलाना किस प्रकार न्यायसंगत हो सकता है ? वधिक जब चमचमाता छुरा लेकर मूक पशुओं की गर्दन पर प्रहार करता है तब वह ही 'कितना भयंकर होता है। खून की धारा बह रही हो, मांस का ढेर लगा हो, हाडियों के टीले लगे हो, चमड़े के खण्ड इधर उधर विखरे हो, यह कितना घृणित और कुत्सित काम है। ऐसी घृणित दशा में मनुष्य नही, राक्षस ही काम कर सकता है ! सुना है कि यूरप में ऊँचे प्रतिष्ठित जज कसाई की गवाही भी नहीं लेते । उनकी दृष्टि में कसाई इतना निर्दय हो जाता है कि वह मनुष्य भी नहीं रह पाता । जो लोग मांसाहार करते हैं वे कसाई न होने पर भी कसाई को उत्तजाना देने वाले होने से भयंकर पाप के भागी बनते हैं। मांसाहार करने वाले कर प्रकृति के होते हैं अतः एक दृष्टि से वे कसाई के समान ही हैं। . . . जैन दृष्टि तो सब प्राणियों को अपने समान समझती है अतः उसकी दृष्टि से जो दूसरे प्राणियों का मांस खाता है वह मानो अपना स्वयं का मांस खा रहा है । इस दृष्टि के कारण जैन परम्परा में मांसाहार का कतई प्रयोग नहीं किया जाता । यही नहीं जैन परम्पराने भारत के सामाजिक जीवन से इस भयंकर मांसाहार प्रचलन को दर करने के लिए भूतकाल में अनेक प्रयत्न किया है और वर्तमान में भी कर रही है। जैन राजाओं ने अपने शासनकाल म इस हिंसक कृत्य पर प्रतिबन्ध लगाया था। जैन लोगों के प्रवल प्रयासों और दृढतम विरोध के कारण ही द्विजवर्ण में मांसाहार का प्रचलन उठसा गया है। आज भारक के उच्च द्विजवर्णों लें मांसाहार नहीं किया
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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