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________________ SS - जैन-गौरव-स्मृतियां काट में स्थान पाते हैं । जैसे ब्राह्मण परम्परा में सन्ध्या करना अवश्यक कर्म माना गया है इसी तरह जैन परम्परा में गृहस्थ और त्यागी सब के लिए आवश्यक कर्म बतलाये हैं जिनमें सर्व प्रथम सामायिक है। अगर सामायिक न हो तो कोई आवश्यक सार्थक नहीं है । गृहस्थ या त्यागी आपने २ अंधिकारानुसार जब जब धार्मिक जीवन को स्वीकार करता है तब तब वह "करेभिभंते ! सामाइयं” की प्रतिज्ञा करता है। इसका अर्थ है कि हे भगवान् ! मैं समता समभाव को स्वीकार करता हूँ । समता का विशेष स्पष्टी करण करते हुए आगे कहा गया है कि मैं सावध योग अर्थात् पाप का व्यापार का यथाशक्ति त्याग करता हूं। सब प्राणियों के प्रति समानता (आत्मौपम्य) का भाव रख सकने के लिए, राग द्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थ भावना बनाये रहने के लिए, जीवन-मरण, हर्ष शोक, लाभ हानि मानायमान आदि के प्रसंगों में भी समभाव रखने का अभ्यास करने के लिए प्रत्येक जैन के लिए सामायिक व्रत करना आवश्यक बताया गया है। इससे ही यह प्रकट हो जाता है कि जैन परम्परा में साम्य का कितना अधिक महत्व है। ___ - जैनधर्म की यह साम्य दृष्टि मुख्यतया दो प्रकार से व्यक्त हुई है। आचार में और विचार नें । जैनधर्म का वाह्य आभ्यन्तर, स्थूल सूक्ष्म सब आचार साम्य दृष्टि मूलक अहिंसा के केन्द्र के आस पास ही निर्मित हुआ है। जिस आचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा और पुष्टि न होती हो ऐसे किसी भी आचार को जैन परम्परा मान्य नहीं रखती । यद्यपि सव धार्मिक परम्पराओं ने अहिंसा तत्व पर न्यूनाधिक भार दिया है पर जैनधर्म नेस तत्व पर जितना भार दिया है, इसे जितना व्यापक बनाया है उतना अन्य किसी ने नहीं । साम्य दृष्टि के कारण ही अहिंसा के सिद्धान्त पर जैनधर्म ने सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतर दृष्टि से विचार क्रिया है । ब्राह्मण परम्परा में सब जीवों के प्रति आत्मौपम्य की भावना का यथोचित रूप से विकास नहीं हुआ। वह परम्परा यज्ञ यागादि के लिए नरमेध, अश्वमेध, अजासेध आदि का विधान करती है और इस तरह यज्ञादि कर्म काण्ड के लिए मनुष्य पशु पक्षी आदि की हिंसा का उपदेश करती है। इस आदेश से यह स्पष्ट होता है कि वह परम्परा सब जीवों को अपने समान समझने की भावना पर जोर न देकर केवल यागादि कर्म काण्ड को महत्व देती है। याज्ञिक, यज्ञ में वलि दिये जाने ANTERASTRIKARAKXKAK:(१२४) :
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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