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________________ * जैन-गौरव स्मृतियों में जैन संस्कृति निरूपणः___. जन संस्कृति साम्य पर प्रतिष्ठित है। सामाजिक साम्य, साम्य विषयक साम्य और प्राणि जगत् के प्रति दृष्टि विषयक साम्य, यह इसकी मुख्य विशेषता है। सामाजिक साम्य का अर्थ यह है कि जैन साम्यदृष्टि का प्राधान्य संस्कृति समाज और धर्म के क्षेत्र में सब जीवों को समान अधिकार देती है। वह किसी व्यक्ति या वर्ग को जन्म से श्रेष्ठ या हीन नहीं मानती है । वह गुण-कर्म कृत श्रेष्ठत्व और कनिष्ठत्वः मानती है अतः धर्माधिकार और समाज रचना में जन्मसिद्ध वर्णभेद को मान न देकर गुण कर्म के आधार पर ही सामाजिक व्यवस्था करती है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी वर्ण का हो, स्त्री हो या पुरुष, रंक हो या राव हो धर्म के क्षेत्र में समान अधिकार वाला है। उच्चवर्ण का व्यक्ति यदि गुण कम से हीन है तो वह इसकी दृष्टि में हीन है और यदि निम्न वर्ण का व्यक्ति गुण-कम से श्रेष्ठ है तो वह जैन दृष्टि से श्रेष्ठ है । यह जैन संस्कृति का सामाजिक साम्य है। . जैन दृष्टि का साध्य ऐहिलौकिक या पारलौकिक भौतिक अभ्युदय नहीं है। इसका साध्य है परम और चरम निःश्रेयस ( मोक्ष ) की प्राप्ति । उस अवस्था में सम्पूर्ण साम्य प्रकट होता है, कोई किसी से न्यून या अधिक नहीं रहता है .. जीव जगत् के प्रति जैन दृष्टि पूर्ण आत्म साम्य की हैं । न केवल पशु-पक्षी किन्तु कीट पतंग और वनस्पति जल, पृथ्वी आदि के सूक्ष्म एवं अव्यक्त चतेना वाले जीवों को भी वह मनुष्य के समान ही मानती है । अतः यह सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की हिंसा को भी आत्मवध के समान मानती है । इस प्रकार जैन संस्कृति साम्य के तत्व पर प्रतिष्ठित है । ब्राह्मण संस्कृति का आधार वैषम्य है। यही जैन ओर ब्राह्मण संस्कृति का मौलिक भेद है। - साम्य अर्थात् समभाव जैन परम्परा का प्राण है। इस साम्य दृष्टि का इस परम्परा में इतना अधिक महत्त्व है कि इसे ही केन्द्र मानकर अन्य सब अचार-विचार का निरूपण किया है । साम्य दृष्टि मूलक और साम्य दृष्टि पोपक जो जो आचार विचार हैं वे सब सामाजिक रूप में इस परम्परा
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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