SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ >>> जैन- गौरव स्मृतियां • लिए जैनधर्म ने अहिंसा को सर्वाधिक महत्व दिया है। प्राणिमात्र के दुःख को अपने दुख के समान अनुभव करने के लिए जैन शास्त्र स्थान स्थान पर आदेश करते हैं । जैनधर्म ने पृथ्वी में, अग्नि में, हवा में, वनस्पति में और कीट पतंगों में भी जीवात्माएँ मानी हैं अतएव उसका आत्म साम्य का सिद्धान्त अति व्यापक है । इस आत्म साम्य की व्यापकता के कारण उसकी हिंसा भी इतनी ही व्यापक है । पृथ्वी और जलगत आत्माएँ भी तत्व दृष्टि से मानवात्मा के तमान हैं अतएव अशक्य परिहार को अपवाद और विवशता मानकर यथा संम्भव सब प्राणियों के प्रति अहिंसक रहना - दूसरों के दुख को आत्म दुख के रूप में संवेदन करना - जैनधर्म का मुख्य सिद्धान्त है । ब्राह्मण धर्म में यह बात नहीं है । वहां अहिंसा धर्म माना गया परन्तु साथ ही यज्ञ-मार्गों में पशुओं की हिंसा का विधान किया गया है । यज्ञों में की जाने वाली हिंसा को यहां धर्म माना गया है । इस विधान में बलि किये जाने वाले निरपरा पशु आदि के प्रति स्पष्ट रूप से आत्म-साम्य का अभाव देखा जाता है । यह आत्मवैषम्य की दृष्टि है । इस दृष्टि वैषम्य के कार ण जैनधर्म और ब्राह्मण धर्म के धार्मिक' अनुष्ठानों में तीव्र भेद पाया जाता है । ब्राह्मण धर्म यज्ञयागादि हिंसा प्रधान कर्मकाण्डों और उनकी आज्ञा देने वाले वेदों में श्रद्धा रखता है जबकि जैन धर्म इन्हें नहीं मानता । वेद धर्म में नदियों को पवित्र मानकर उनमें स्नान करने का बड़ा धार्मिक महत्व है, जैनधर्म ऐसा नहीं मानता है । तात्पर्य यह है कि हिंसा की प्रधानता के कारण जैनियों के बाह्य आन्तरिक अनुष्ठानों और वेदनुयायी सम्प्रदाय के धार्मिक अनुष्ठानों में बड़ा भेद रहा हुआ है। जैन धर्म का साध्य निःश्रेयस (मोदक्ष ) है । जब कि वेदों के अनुसार ब्राह्मण धर्म का साध्य है अभ्युदय जिसमें ऐहिकसमृद्धि, राज्य, पुत्र-प्राप्ति, इन्द्रपद का लाभ, स्वर्गीय सुख आदि का समावेश है । उपनिषद आदि में आगे चल कर इस साध्य में परिवर्तन अवश्य देखा जाता है । ब्राह्मण धर्म की सामाजिक व्यवस्था में और धर्माधिकार में ब्राह्मण वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व और उत्तर वर्णों का ब्राह्मण की अपेक्षा कनिष्ठत्व मान XXXXXXXXXXXX(??) »XXXXXX-XXXXX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy