SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ << जन गौरव स्मृतियां समझना ठीक है । 'तथागत' शब्द का अर्थ होता है. "ऐसे गये जो" अर्थात् "सच्चे मार्ग पर चढे हुए" इसका भावार्थ "आदर्शरूप" होता है। महावीर ज्ञातकुल में और बुद्ध शाक्य कुल में जन्मे थे। इस लिये महावीर 'ज्ञातपुत्र'. और बुद्ध शाक्यपुत्र भी कहलाये थे । शाक्य पुत्र की अपेक्षा शाक्यमुनि भी वह कहलाये । घर के भाई बन्धुओं में महावीर 'वर्द्धमान और बुद्ध 'सिद्धार्थ ' नाम में प्रख्यात थे । बुद्ध नाम की अपेक्षा से उनके अनुयायी बौद्ध कहलाये और महावीर की जिन संज्ञा के अनुरूप उनके अनुयायी जैन नाम से प्रसिद्ध हुए ।" I ; "लगभग तीस तीस वर्ष की अवस्था में संसार व्यवहार से उदासीन होकर दोनों ने त्याग मार्ग अंगीकार किया। दोनों ने उत्साह पूर्वक परिपूर्ण पुरुषार्थ से तपश्चर्या अंगीकार की । तपस्या इनके लिए कसौटी थी । महावीर इसमें सफल हुए और उन्होंने तप को महत्व देते हुए अपना धर्मोपदेश प्रचारित किया । .... नैतिक सिद्धांत और धार्मिक भावनाओं में महावीर और बुद्ध प्रायः समान ही थे; मुख्य विषयों में तो एक मत थे इतना ही नहीं परन्तु इनके समय के दूसरे विचारकों के ( कतिपय ) नैतिक और धार्मिक अभिप्रायों के साथ भी दोनों एक मत थे. • ब्राह्मण धर्म के आचार्यों के ज्ञाति भेद की संकुचितता के कारण और यज्ञ में पशुओं को मार कर होम करने में धर्म मानने के कारण उनका यह धर्म कार्य इन दोनों को भयंकर पाप कर्म प्रतीत · हुआ। क्यों कि मनुष्य और पशु की हिंसा को ये भयंकर पाप मानते थे ।.. 1. महावीर ने अपना पुरुषार्थ आत्मा के विषय पर अधिक लगाया, केवल वे साधु ही नहीं तपस्वी भी थे । किन्तु बुद्ध को बोध प्राप्त होने पर वह तपस्वी न रहे मात्र साधु रह गये | बुद्ध ने अपना पुरुषार्थ जीवनधर्म पर लगाया । इस प्रकार महावीर का उद्द ेश्य आत्मधर्म हुआ तो बुद्ध का लोकधर्म | बुद्ध अपना उद्देश्य आत्मधर्म से विकसित करके लोकधर्म स्वीकार किया । इस कारण वे प्रख्यात भी खूब हुए। बुद्ध की दृष्टि लोकसमाज पर लगी । वह सबके थे और उनका आत्मयोग भी सबके लिए था । इस प्रकार उनका धर्म महावीर के धर्म से सर्वथा स्पष्ट रीति से अलग ठहरता है । ने महावीर के धर्म में सर्वोच्च भावना श्रात्मयोग और आत्मत्याग की - है । प्रत्येक बुद्ध और बुद्ध-इन दो शब्दों का अर्थ भेद दोनों महापुरुषों के भेद XXXXXXXXXXXX (?-5): XXXXXXXXXXXX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy