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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियों का '..को तार देने के क्रियाकाण्ड की रचना करके, वर्णभेद की प्रचण्ड दीवार खड़ी • करके तथा अपने आपको सर्वोच्च और सर्वधिकारी मानकर ..कर्मकाण्डी ब्राह्मणों ने धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में अपना एकाधिपत्य वना रखा था। इस प्रकार धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त सी थी। उस समय इन दोनों क्षत्रिय सुधारकों ने सर्व प्रथम याज्ञिक हिंसाकाण्डों और जातिवाद के कारण फैली हुई विषमता को सारी बुराइयों का कारण माना और इन्हें दूर करने के लिए प्रयत्न किये। इन दोनों क्षत्रिय आध्यात्मिक . .. पुरुषों ने अहिंसामय धर्म का स्वरूप जनता के सामने रक्खा । उन्होंने स्पष्ट घोषित किया कि यज्ञादि बाह्यक्रिया काण्डों से मोक्ष नहीं हो सकता। धर्म - किसी वर्ग या जाति की बपौती नहीं है। वह सर्व साधारण की चीज है। - प्रत्येक व्यक्ति उसका अधिकारी है। धर्म में जाति का कोई स्थान नहीं हैं। इस उपदेश के कारण तत्कालीन परिस्थिति में पर्याप्त सुधार हुआ। याज्ञिक हिंसाओं का दौरदौरा कम हुआ | अंहिंसा की प्रतिष्ठा हुई। सर्व साधारण जनता को धर्म-पालन का अधिकार प्राप्त हुआ। तोत्कालीन जनता ने 'इन - , महान उपदेशकों के उपदेशों को हितकारी माना और वह उससे बहुत अंशों तक प्रभावित हुआ। दोनों महापुरुषों के द्वारा स्थापित संघों में प्रवृष्ट होकर जनता ने अपने को कृतार्थ और धन्य माना । भगवान महावीर और उनके अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। - इन दोनों महान् आत्माओं के बीच क्या, सादृश्य था और क्या अन्तर था, इन दोनों की कार्य प्रणालि में क्या विशेषता थी, दोनों में क्या महत्वपूर्ण भेद था आदि विषयों पर प्रकाश डालते हुए जर्मन प्रोफेसर ल्यूमन . ने लिखा है . ... ... . . . . . . . . - "महावीर का जन्म ई० सं०.पूर्व ५७० के आस पास हुआ। वह महान् विजेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। बुद्ध ई० सं०:पूर्व ५५० -- के लगभग जन्मे और 'बुद्ध अर्थात् ज्ञानी कहलाये। ये दोनों महापुरुष "अर्हन्त', "भगवन्त" और जिन नामों से विख्यात थे। किन्तु महावीर की तीर्थङ्कर संज्ञा उसी प्रकार निराली है जैसे बुद्ध की तथागत् ! दोनों महापुरुषों के क्रमशः यहीं नाम लोकप्रिय और प्रचलित थे । 'तीर्थङ्कर' शब्द का अर्थ 'तारन हार' अथवा मुक्तिमार्ग के प्रदर्शक' है। तीर्थंकर का भावार्थ 'मार्गदर्शक KNAMETERTA INMKARTERNETIE
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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