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________________ Sentence* जैन-गौरव स्मृतियां दीक्षा दी गई और सोमचन्द्र नाम रखा गया। सं. ११६६ में आचार्य पद प्रदान किया और हेमचन्द्र सूरि नाम रक्खा । इस समय इनकी अवर केवल २१ वर्ष की थी। हेमचन्द्राचार्य विचरते २ गुजरात की राजधानी पाटन में आये। पाटन नरेश सिद्धराज जयसिंह इनकी विद्वत्ता से मुग्ध हो गया। अपनी विद्वत्सभा में इन्हें उच्च स्थान प्रदान किया और इन. पर असाधारण श्रद्धा रखने लगा । धीरे २ सिद्धराज की सभा में इनका वहीं स्थान हो गया जो विक्रमादित्य की सभा में कालिदास का और हर्प की सभा में बाणभट्ट का था। नरेश सिद्धराज जयसिंह की विशेष विनति पर प्राचार्य श्री ने एक सर्वाङ्ग सम्पन्न बृहत याकरण की रचना की में इस व्याकरण का नाम - "सिद्धहैम" रखा। जो सिद्धराज और प्राचार्थ श्री के पुण्य संस्मरणों का सूचक है। आचार्य श्री का सिद्धराज पर बड़ा प्रभाव था । यद्यपि सिद्धराज शैव था तदपि इन आचार्य श्री के प्रभाव से उसने जैनधर्म के लिए कई उपयोगी कार्य किये जिसका वर्णन "गुजरात के जैनराजा और जैनधर्म' शीर्षक में किया जा चुका है। सिद्धराज के बाद पाटन की राजगद्दी पर कुमारपाल पाया। कुमारपाल के संकट दिनों में श्राचार्य श्री ने ही उसे संरक्षण और आश्रय दिया था ! राज्यारुढ होने पर कुमारपाल ने श्राचार्य श्री से जैनधर्म अंगीकार कर लिया और अपने सारे राज्य में अमारियोपण करवादी । कुमारपाल आचार्य हेमचन्द्र को अपना गुरु मान कर सदा उनका कृता और सक्त बना रहा। प्राचार्य श्री ने भी उसे 'परमाईत' के पद से सम्बोधित किया। कुमारपाल का राज्य आदर्श जैनराज्य था। प्राचार्य श्री की मुख्य २ साहित्यक रचनाएं इस प्रकार है : -सिद्ध हैग व्याकरण :"सिद्ध हम व्याकरण" के अध्याय है। प्रथम सात में संस्कृत भाषा का सम्पूर्ण व्याकरण आगया है । और पाठवें अध्याय में प्राहा, शौरसेनी.
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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