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________________ *जैन-गौरव-स्मृतियाँ★RSee करने में अशोक को जो सफलता मिली, उस पर वह हर्ष और गौरव प्रकट करता है । इसके अतिरिक्त अशोक ने धर्मलिपियों में जो शिक्षाएँ मानवसमाज को दी हैं वे जैनधर्म के विशेष अनुकूल हैं । "जीवित प्राणियों की हिंसा न की जाय, मिथ्यात्ववर्धक सामाजिक रीतियों को नहीं अपनाना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, अल्पव्ययता और अल्पभाण्डता (अल्पपरिग्रह) का अभ्यास करना अच्छा है, संयम और भावशुद्धि का होना आवश्यक है" इत्यादि शिक्षाएँ जैनधर्म के पाँच ऋणुव्रतों के अनुकूल हैं। तथा इन धर्मलिपियों में कई ऐसे पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग कियागया है जो जैनधर्म में अधिकतर व्यवहत होते हैं । श्रावक, प्राण, आरम्भ-अनारम्भ, संबोधि, कल्प आदि शब्द उल्लेखनीय हैं। इससे अशोक का जैनधर्म और उसके सिद्धान्तों से परिचित होना सिद्ध होता है। अशोक अपने जीवन के प्रारम्भकाल में जैन था । यह तो स्वयं बौद्धग्रन्थों से सिद्ध होता है १ । कतिपय विद्वान् यह मानते हैं कि अशोक पहले जैन था परन्तु वाद में यह चौद्ध हो गया था। यह बात पुष्टाधारहीन प्रतीत होती है। यह बात अवश्य है कि अशोक अपने जीवन के पूर्वार्ध में जैनधर्म का परम्परागत अनुयायी था और वाद के जीवन में वह संव धर्मों के प्रति उदार और समभाववाला हो गया था। उसके पितामह और पिता जैनधर्मानुयायी थे अतः वह जैनधर्म के संसर्ग से वञ्चित रहा हो यह तो बन नहीं सकता। जैनधर्म के जो संस्कार उसके अन्दर विद्यमान थे वे कलिङ्ग को विजय करने में होनेवाले भीपण संहार से एकदम जागृत हो उठे। कलिङ्ग के युद्ध में होनेवाली लाखों प्राणियों की हिंसा का विचार करते २ उसका हृदय स्वयमेव विदीर्ण होने लगा। उसे अपने आप पर धृणा और. ग्लानी उत्पन्न हो गई। उसे अपने राज्यविस्तार के लिए लड़े जानेवाले युद्धों के लिये पश्चात्ताप होने लगा। उस युद्धजनित पाप को धोने के लिये कुछ कर मिटने की साध उसके हृदय में जाग उठी। उसका ध्यान अपने पितामह चन्द्रगुप्त के आत्मोद्धार की घटना पर गया और तब से उसने धर्मप्रवृत्तियों में अपना शेष जीवन लगादेने का निश्रय किया । इसका धर्मप्रचार इली मिथ, अशोफ पृ.
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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