SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ >> जैन- गौरव स्मृतियां >*<><>< कुन्ती शीलवती नलस्यदयिता चूला प्रभावत्यपि, पद्मावत्यपि सुन्दरी दिनमुखे कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥ इस श्लोक से मंगलमूर्ति महासाध्वियों के नामों का निर्देश किया गया है । इन मंगल मूर्तियों से मंगल की कामना की गई है । प्रातः काल इन पवित्र नारियों का कीर्त्तन किया जाता है, इसपर से यह स्पष्ट है कि जैनसंघ में नारियों का कितना ऊँचा स्थान है । सिद्धान्ततः जैनधर्म में नारियों को पुरुष के समान ही सब अधिकार दिये हैं । परन्तु मध्ययुग के नारी-विरोधी वातावरण का प्रभाव जैनधर्मानुयायी वर्ग पर भी पड़े बिना न रह सका । सिद्धान्ततः नारी की सर्वतोमुखी योग्यता को स्वीकार करने पर भी व्यवहार में जैन जनता भी नारी की अवगणना के दोष से मुक्त न रह सकी । नारी-शिक्षण की ओर उपेक्षा- बुद्धि पैदा हो गई और वे केवल घरेलू कार्यों तक ही सीमित बना दी गई । जिनभगवान् ऋषभदेव ने ब्राह्मी सुन्दरी को सर्वप्रथम शिक्षिण देकर नारी - शिक्षा को पुरुष - शिक्षा की अपेक्षा भी अत्यधिक आवश्यक बताया उन्हीं के अनुयायीवर्ग ने स्त्री शिक्षण के प्रति घोर उपेक्षा प्रारम्भ कर दी यह कितनी शोचनीय बात हैं ? 1 मध्ययुग में “स्त्री को शास्त्र पढ़ने का अधिकार नहीं है" इस मनोकल्पित भ्रान्त सिद्धान्त का व्यापक प्रचार किया गया था । साधारण लोगों की यह धारणा बन गई कि "एक घर में दो कलम नहीं चल सकती ।" जहाँ शास्त्र यह विधान कर रहे हैं कि स्त्रियाँ केवल ज्ञान प्राप्तकर मोक्ष की अधिकारिणियाँ हुई हैं वहाँ उक्त वात कैसे संगत हो सकती है ? यहाँ यह शंका की जा सकती है कि जैनाचार्यों ने दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग पढ़ने का अधिकार स्त्रियों को क्यों नहीं दिया है ? यह शंका यथार्थ है वस्तुतः दृष्टिवाद के पठन का निषेध प्रायिक है । प्रत्येक स्त्री के लिए निपि ही है ऐसा नहीं है । जो स्त्रियाँ समर्थ है, उसे ग्रहण कहने की योग्यता वाली हैं उसका अध्ययन कर सकती हैं। जब स्त्री को केवल ज्ञान हो सकता है क्या कारण है कि दृष्टिवाद का अध्ययन न करसके । केवल ज्ञान च अधिकारिणी मानने पर दृष्टिवाद का निषेध करना ठीक वैसा ही है जै किसी को रक्षा के लिए रत्न सौंप देने के बाद कहना कि तुम कौड़ी व {{{{{{{{(३०१){kkeke\\\/
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy