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________________ जैन गौरवःस्मृतियां प्रकार नारी के अतीत और मध्ययुग के इतिहास की रूपरेखा बता देने पर अब यह विचारें कि जैनधर्म की दृष्टि में नारी का क्या स्थान है। - जैनसंघ में नारी को पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त हैं। जैनधर्म ने उसे परम और चरमपुरुषार्थ-- मोक्ष की सिद्धि करने की अधिकारिणी मानी है । नारी जाति को इतना उच्चतम अधिकार तक दे देने से वह अन्य समस्त अधिकारों की अधिकारिणी तो स्वयमेव हो जाती है। जिसमें मोक्ष प्राप्त करलेने की योग्यता मानली गई उसमें प्रत्येक श्रेष्ठ कार्य की योग्यता अपने आप ही मानी हुई है। मतलब यह हुआ कि जैनधर्म नारी को पुरुषों के समान ही सब अधिकार प्रदान करता है साम्यमूलक जैनधर्म आत्मविकास और व्यवहार में लिंगभेद को महत्व नहीं । देता । वह तो गुण पूजक है । जहाँ भी गुण है वहाँ जैनधर्म की आदर दृष्टि है । कालिदास की यह उक्ति-"गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंङ्ग नच वयः" जैनधर्म के आदर्शों के अनुकूल है। . . __ श्रमण भगवान महावीर ने अपने संघ में नारी को भी पुरुषों के समान ही स्थान दिया है । इतना ही नहीं उनके शासन में साधुओं की अपेक्षा साध्वियों . की संख्या विशेष रही है। बुद्ध ने अपने संघ में स्त्रियों को स्थान नहीं दिया था । प्रथम उन्होंने स्त्री जाति को भिक्षु पद के लिए अयोग्य निर्धारित किया था परन्तु बाद में अपने प्रधान शिष्य आनन्द' के आग्रह से उन्होंने पुरुषों . के समान स्त्रियों को भी अपने भिक्षु-संघ में लेने की अनुमति दे दी थी। जैनधर्म ने तो आरम्भ से ही स्त्रियों को आत्मविकास का सर्वाधिकार प्रदान किया है। भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी को अपने संघ में स्थान दिया । भगवान् महावीर ने चन्दनवाला को अपने साध्वी संघ की सर्वाधिकारिणी बनाया। भगवान् महावीर के संघ में छत्तीस हजार सोध्वियाँ थीं। . - 'जैनसंघ में इन महासतियों को इतना उच्चस्थान प्राप्त हैं कि प्रातः काल उठकर प्रत्येक जैन यह मंगलाचरण करता है : ... ब्राह्मी चन्दन वालिकाः भगवती राजीमती द्रौपदी, ... ... कौशल्या च मृगावती.च सुलसा सीता सुभद्रा शिवा।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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