SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जैन गौरव-स्मृतियाँ * और चाहिए बैसा ध्यान ही नहीं दिया। इसके कारण संसार जैनसिद्धान्तों. के विषय में बहुत लम्बे समय तक अनभिज्ञ ही रहा । संक्षप में यही कारण, हैं कि जिनके कारण जैनधर्म के सम्बन्ध में कई भ्रान्त धारणाएँ लोगों . मैं फैली हुई हैं। कारणों की विशेष गहराई में न उतरकर- यहाँ यही बताना है कि जैन सिद्धान्तों के विषय में क्या २ भ्रामक मान्यताएं फली हुई हैं और उनका निराकरण क्या है। ... ... ... .. सबसे बड़ी.भ्रान्ति जैन इतिहास के सम्बन्ध में है । कई विद्वानों की .. धारणा है कि जैनधर्म, बौद्धधर्म की शाखा है; कई यह मानते हैं कि यह हिन्दुधर्म की शाखा हैं। कई यह मानते हैं कि भ० इतिहास-विषयकभ्रान्ति महावीर ने जैनधर्म की स्थापना की; कई यह बतलाते हैं कि महावीर से पहले होने वाले पार्श्वनाथ जैनधर्म के आदि प्रवर्तक हैं। इस तरह जैनधर्म के सत्य-इतिहास के विषय में नाना भाँति की भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं । यहाँ अतिसंपेक्ष में इनका निराकरण करने का प्रयत्न किया जाएगा। . . . . . . . .... ...... : ...जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाखा बतलाना तो इतिहास की सबसे बड़ी अज्ञानता है। इतिहास यह स्पष्ट कह रहा है कि बुद्ध के समय में जैनधर्म गौरव-मय स्थान पर अरूढ था । जैनधर्म के तेवीसवें तीर्थङ्कर श्री पाश्वनाथ भगवान् हुए हैं जिनकी ऐतिहासिकता अब निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है। ये पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर भगवान महावीर से लगभग २५० वर्ष पहले हो चुके हैं। बुद्ध तो भगवान् महावीर के समकालीन हैं। बौद्ध 'ग्रन्थों में भी भगवान पार्श्वनाथ का उल्लेख मिलता है। आज के बहुत से इतिहासकार भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि बुद्ध ने अपनी विचारधारा में बहुत सा अंश अपने से पहले होने वाले भगवान् पार्श्वनाथ. के धर्मचिन्तन से लिया है। यही कारण है कि श्रावक, मिनु आदि जैन परम्परा के पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग चौद्ध-साहित्य में प्रचुरता से मिलता है। . बौद्ध और जैनधर्म ते एकसाथ वेद-विहित यज्ञों का निषेध किया, वेदों की प्रमाणता मानने से इन्कार किया और दोनों ने जाति-पाँति के भेदों को अमान्य घोषित किया तथा अहिंसा पर मुख्य रूप से भार दिया।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy