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________________ >>>> जैन गौरव-स्मृतियां + विशेष विचारणा है, परन्तु जैनधर्म तो प्रारम्भ से ही जीव और अजीव 'तत्व का कथन करता आया है । विश्व के अधिकांश धर्मों का उद्दश्य और चरम साध्य ऐहिक और पारलौकिक भौतिक आस्मुदय मात्र है जब कि जैन धर्म का चरम साध्य भौतिक आभ्मुदय को हेय मानकर आत्मा कि सर्वोच्च पराकाष्ठा - परमात्म पद को प्राप्त करना है । श्रेयस को छोडकर निःश्रेयस की. आराधना करना जैनधर्म का साध्य है । अतः आध्यात्मिक दृष्टि बिन्दु से जैनधर्म का स्थान विश्व के समस्त धर्मो से ऊँचा है । जैनधर्म के सिद्धांत आध्यत्मिक होते हुए भी व्यवहारिक जगत् के लिए भी उनका बहुत अधिक महत्त्व है । आध्यात्मिक और व्यावहारिक- दोनों दृष्टियों से जैनधम का बहुत ऊँचा स्थान है । 凉 जैनधर्म विश्व धर्म है जैन धर्म परम उदार, व्यापक और सार्वजनिक है । यह सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखाय है । इसके सिद्धान्तों में संकीर्णता के लिये कोई स्थान नहीं है । इसमें जातिपांति का कोई भेद नही, राजा और रंक का पक्षपात नहीं, स्त्री और पुरुष के अधिकारों में विषमता नहीं है । यह मानव मात्र को ही नहीं पशु-पक्षियों को भी धर्मे का अधिकार प्रदान करता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि: i t " जहा तुच्छरस कत्थई तहापुराणस्स कत्थइ, जहा पुराणस्स कत्थइ तहा तुच्छरस कत्थई" अर्थात्, जैनधर्म का उपदेष्टा साधक जिस भाव से अनासक्त भाव से रंक को उपदेश करता है, उसी निष्काम भाव से चक्रवर्ती आदि को भी उपदेश देता है और जिस भाव से चक्रवर्त्ती आदि को उपदेश देता है उसी भाव से साधारण से साधारण व्यक्ति को भी उपदेश देता है । अर्थात् • उसकी दृष्टि में श्रीमन्त और निर्धन का, राजा और रंक का ऊंच और नीच ar भेद भाव नहीं होता । वह प्रत्येक व्यक्ति को अपने उपदेश का अधिकारी समता है। जैनधर्म की छत्र छाया प्रत्येक देश का, प्रत्येक प्रान्त का प्रत्येक जाति का, प्रत्येक वर्ग का और प्रत्येक श्रेणी का व्यक्ति आश्रय पा सकता है । पतित से पतित व्यक्ति भी इसका अवलम्वन लेकर अपना कल्याण कर - सकता है । (५६) ४४१ ,
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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