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________________ See जैन गौरव-स्मृतियां * जैनधर्म की वैज्ञानिक विचार धारा से भारत के धार्मिक क्षेत्र में । विचार स्वातन्त्र्य का प्रवेश हुआ जिससे पुरोहित वाद के दुर्ग की नींव हिल गई । सामाजिक क्षेत्र में नवीन क्रान्ति हुई जिससे किसी भी वर्ण के जन्म- . सिद्ध श्रेष्टत्व को अस्वीकृत किया गया । जातिपांति की दीवारें और ऊँच-नीच के भेद भाव ढह गये। सद्गुणी शूद्र भी दुर्गुणी ब्राह्मण से श्रेष्ट है और धार्मिक क्षे में योग्यता के आधार पर हर एक वर्ण का पुरुष या स्त्री समान रुप से उच्च पद का अधिकारी है, यह जैनधर्म ने ही धोषित किया। धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में लोक तंत्रात्मक विचार धारा को जन्म देने का श्रेय जैनधर्म को ही है । जैनधर्म ने उत्पीड़ित, दलित, शोषित और पतित समझे जाने वाले वर्ग का उद्धार किया, उसे समानता के स्तर पर स्थापित कर दिया। जैनधर्म ने आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त वाद को स्थान देकर धर्म और दर्शन की अनेक गुत्थियों का समाधान किया। धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जैनधर्म की यह अनुपम देन है । जैनधर्म की साहित्य और कला सम्बन्धी देन भी अपूर्व है। इन सब बातों का विस्तृत विवेचन अगले पृष्टों में यथास्थान किया जायगा । तात्पर्य यह है कि जैनधर्म और जैन संस्कृति ने । भारतीय संस्कृति में एक नवीन जीवन का संचार किया है। प्राचीन धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का वैज्ञानिक धर्म के रूप में . अत्यन्त गौरवमय स्थान है। न केवल भारतीय धर्मों में ही वरन विश्व के समस्त धर्मों में जैनधर्म का स्थान अन्य किसी धर्म की धर्मों में जैनधर्म का स्थान अपेक्षा किसी तरह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । जैनधर्म ने अपने सिद्धान्तों के रूप में वह बहुमूल्य उपहार समर्पित किया है जो आजतक किसी ने नहीं किया। जैनधर्म के सिद्धान्त विश्व की सबसे अधिक मूल्यवान सम्पति है । शताब्दियों तक जैनधर्म भारतवर्ष का प्रमुख धर्म रहा है । इस रूप में उसने जो सेवाएँ बजाई हैं उन्होंने ही उसे . धर्मों के इतिहास में गौरवमय स्थान पर आसीन किया है। विश्व में जितने धर्म प्रचलित हैं उनमें आध्यात्मिकता की दृष्टि से जैन धर्म का सर्वप्रथम स्थान है । आत्मा तत्व का सर्वप्रथम निरूपण जैन धर्म ने ही किया है ऐसा विद्वानों का अनुभव है। आत्म-अनात्मा की मीमांसा 'वैदिक काल में स्पष्ट रूप से प्रतीत नहीं होती । उपनिषदों में आत्म तत्व की )
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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