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________________ dis e * जैन-गौरव स्मृतियों - अब ये अपनी मर्यादा के बाहर होकर एक दूसरे के प्रतिषेधक हो जाते हैं तब ये असत्य हो जाते हैं और अमान्य ठहरते हैं । जो नय अपने विषय का ग्राहक होकर भी अन्य का निषेध नहीं करता है वह 'नय' कहलाता है । जो दूसरे का निषेधः .करने में प्रवृत्त होता है वह दुर्नय या नयाभास है । कहा है:.. अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । - - - नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृतिः ।। .. . : ..... अर्थात्-प्रमाण वस्तु के अनेक रुपों को ग्रहण करता है; 'नय' वस्तु के एक अंश को ग्रहण करता है। नय दूसरे धर्मों की अपेक्षा रखता है। जो दूसरे धर्मों का निराकरण करता है वह दुर्नय है । नयवाद सापेक्ष सत्य है । इस तत्त्व को सुबोधतया -समझाने के लिए यह दृष्टान्त उपयोगी होगा। विशाल समुद्र की जलराशि में से थोड़ा सा पानी लीजिए । उस घड़े-भरः पानी को न तो समुद्र कह सकते हैं और नं असमुद्र ही कहा जा सकता है । यदि उस घड़े-भर पानी को ही समुद्र कह दिया जाय तो समुद्र का शेष जल असमुद्र हो जाएगा अथवा अनेक समुद्र मानने पड़ेंगे। ये दोनों प्रत्यक्ष-बाधित हैं इसलिए समुद्र के धड़े-भर पानी को हम समुद्र नहीं कह सकते । इसी तरह उसे असमुद्र भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि वह जल समुद्र का ही है । यदि समुद्र के घड़े-भर पानी में अल्प भी समुद्रता नहीं है तो वह शेष सब पानी में भी नहीं हो सकती क्योंकि जो धर्म अंश में नहीं है वह समुदाय में भी नहीं हो सकता । जब समुद्र के घड़े भर पानी में समुद्रता नहीं है तो क्या कारण है कि वह शेष जल में मानी जाय ? समुद्र के घड़े-भर पानी में भी समुद्रता है, अन्यथ' वह समुद्र का जल नहीं कहा जा सकता है। तात्पर्य यह निकलता है कि घड़ा-भर पानी न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही, लेकिन समुद्र का अंश है । ठीक इसी तरह नय द्वारा गृहीत वस्तु का स्वरूप न तो पूर्ण वस्तु ही है और न अवस्तु ही, लेकिन वस्तु का अंश है। कहा भी है:__ . नासमुद्रः समुद्रो वा: समुद्रांशो यथैव हि . I... . . A . ... नायवस्तु न चावस्तु वस्त्वंशो कथ्यते बुधैः।। . . . . . .
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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