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________________ >>> जैन- गौरव स्मृतियां * डा मान्यतायें प्रचलित हैं और उनमें परस्पर में खींचातान भी है। इस धार्मिक विवाद का कारण केवल कदाग्रह है । संसार के विभिन्न पंथ और समुदाय सम्पूर्ण सत्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं लेकिन ज्ञान की अपूर्णता के कारण वस्तु के एक अंश को ही प्राप्त कर सकते है । इस अपूर्ण अंश को ही पूर्ण मान लेने से सब संघर्ष पैदा होते हैं । " 2 जैनदर्शन का स्थाद्वाद इन संघर्षों को समाप्त कर देता है । वह विश्व के समस्त धर्मों, दर्शन, सम्प्रदायों और मान्यताओं का समन्वय कर देता है। वह विश्व को यह शिक्षा देता है कि जगत् के सब धर्म और दर्शन सत्य के ही अंश हैं । परन्तु जब एक अंश दूसरे अंश से न मिलकर उनका तिरस्कार करता है तब वह विकृत हो जाता है और सत्य मिटकर सत्याभास हो जाता है । यह एकान्तवाद की स्थिति भयंकर परिणामों को पैदा करती है। जो मत या पन्थ दूसरे सत्यांशों को पचाने की क्षमता रखता है यह उदार और संगठित बनकर पूर्णसत्य के मार्ग पर प्रगति करता है । स्याद्वाद यह सिखलाता कि तुम वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोण से देखो। तुम अपनी दृष्टिकोण को सत्य समझो लेकिन जो दृष्टिकोण तुम्हे अपना विरोधी प्रतीत होता हो उसकी सत्यता को भी समझने की कोशिश करो। सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व का अवलोकन करने के लिये सापेक्षदृष्टि होनी चाहिए । सापेक्षदृष्टि का तात्पर्य यह है कि जो वस्तु एक दृष्टि से जिस रूप में प्रतीत हुई हो उसे ही पूर्ण न मानकर दूसरे दृष्टिकोणों के लिये भी उसमें अवकाश हो। इसी सापेक्षवाद को पारिभाषिक शब्द में 'नयवाद' कहते हैं । 1 अनन्त-धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म को लेकर जो यथार्थ अभिप्राय होता है बह 'नय' हैं । एक ही वस्तु के प्रति विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से उत्पन्न होने वाले विभिन्न अभिप्राय 'नय' कहे जाते है । चूंकि वस्तु में अनन्त धर्म हैं अतः उसके सम्बन्ध में अनन्त प्रकार के अभिप्राय और विचार हो सकते हैं अतएव नय भी हैं । सुप्रसिद्धतार्किक आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है :'जावइया वर पहा तावइया चेव हुंति नयवाया' जितने वचन-प्रकार हैं उतने ही नयवाद हैं । नयों के सम्बन्ध में यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि नय अपनी मर्यादा में ही सत्य होते हैं । XXXXXXXXXXXXXX:(8) XXxxxxxxxxxXXX नयवाद
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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