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________________ S e * जैन-गौरव स्मृतियां अगाध ज्ञान एवं परिश्रम का ही फल है । प्राचीन काल के शब्दवेधी बाण का ही एक रूप हमें Sor'nd Ra: gia की प्रक्रिया में मिलता है। आज की . भाप से चलने वाले आटे की चक्की प्राचीन शास्त्रों में वर्णित पारा वाष्प यंत्रों को रूप ही प्रतीत होती है। पुराने पुष्पक विमान और आधुनिक हवाई जहाज क्या कोई भिन्न चीजें हैं ? फर्क सिर्फ इतना ही है कि प्राचीन लोगों को प्रक्रिया . वद्ध और अंगों-पाङ्गादि के विश्लेषणात्मक ज्ञान की प्रणालीन ज्ञात हो; इसलिए उनें ग्रन्थों में हमें इनका विशद विवेचन नहीं मिलता। परं इससे यह क्यों समझा : जाय कि आज जो कुछ हो रहा है, उसके सामने : पुरातन ज्ञान नगण्य है और इसीलिए हम उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगें। जिस आधुनिक भौतिकता के पीछे लोग दौड़ रहे हैं वह प्राचीन विचारों और शास्त्रवणित तथ्यों का नूतन संकरण ही है, ऐसा कहना चाहिये; कहना तो यह भी चाहिये: कि यह संशोधित क्रमपरिवर्द्धित संस्करण है। ..... ... हमारे धर्माचार्यों ने भौतिक जगत् की जिस वैज्ञानिक और तर्क संगत.. ढंग से वर्णना की है उसकी बड़े बड़े वैज्ञानिकों ने प्रशंसा की है। ... - जैनधर्म के अनुसार भौतिक जगत् जीव तथा पाँच प्रकार के अजीव । [पुद्गल, धर्म. अधर्म, आकाश, काल ] इस प्रकार छह द्रव्यों से बना है। इनमें समस्त चराचर जगत् व्याप्त है। पुद्गल द्रव्यः से हम समस्त भौतिक पदार्थों और शक्तियों को लेते हैं जो दृश्य हैं। धर्म से गतिमाध्यम (.पानी में मछली के समान गमन में सहायक), अधर्म में स्थिति माध्यम ( पथिक के : लिए वृक्ष-छाया के समान स्थिति में सहायक ), आकाश में अन्य : पाँचद्रव्यों का अधिकरण आधार-स्थान, एवं काल से जगन्नियंत्री शक्ति का अर्थ लेते हैं । जीव से आत्मा का ग्रहण होता है, जिसका स्वभाव चेतना है । दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि यह जगत् मूर्त ( पुद्गल ) एवं अमूर्त (अन्य पाँच ) द्रव्यों से बना है। इन छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर बाकी पाँच अस्तिकाय हैं जिनमें सत्ता एवं विस्तार (Existence . and Extence) दोनों पाये जाते हैं। काल द्रव्य में विस्तार [ नाणोः] . नहीं पाया जाता है। ........ अ-द्रव्य लक्षण जैनमत में द्रव्य का अर्थ उन मूलभूत वस्तुओं से है, जिनमें उत्पादः ।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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