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________________ > जैन-गौरव स्मृतियां didici n e औव द्रव्य का स्वरूप वह एक दूसरे से पृथक् स्वतंत्र सत्ता वाला है। जो जीव . परद्रव्य-कर्म-से मुक्त है वह शुद्ध ज्ञाता है; अशरीरी है, अपरिमित शक्ति वालाहै । जीवद्रव्य की स्वाभाविक ऊर्ध्व-गति है । इसका विस्तृत वर्णन 'जैन दृष्टि से जीव' नामक प्रकरण में किया जा चुका है । जैनदर्शन सम्मत जीव का स्वरूप सांख्य दर्शन के पुरुष से, वेदान्त के ब्रह्म से, न्याय-वैशेषिक दर्शन के आत्मा से और बौद्धों के विज्ञानप्रवाह से भी भिन्न है । जैन दर्शन का जीवतत्त्व निरूपण सबसे विलक्षण और अनुपम है। - चैतन्य शक्ति की तरतमता के आधार पर जैनधर्म ने जीव के दो मुख्य भेद माने हैं जो त्रस और स्थावर कहलाते हैं। जिनकी चेतना-शक्ति व्यक्त है, जो हलन चलन कर सकते हैं ऐसे जीव त्रस की श्रेणी में हैं। जिनका चैतन्य अध्यक्त है ऐसे पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पति काय के जीव स्थावर कहलाते हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में चेतना-शक्ति का सद्भाव जैनधर्म के अतिरिक्त और किसी दार्शनिक या धार्मिक परम्परा ने नहीं माना। जैन विचारकों के अतिरिक्त दुनिया के किसी विचारक ने आज की वैज्ञानिक शोध के पहले तक इसका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया । परन्तु आधुनिक विज्ञान ने वनस्पति आदि में अव्यक्त चेतना है, यह प्रमाण पुरस्सर सिद्ध कर दिया है। (बाइ-ओ लॉजीप्राण विद्या) और (साइ-को-लॉजी- मानसशास्त्र) सम्बन्धी आधुनिक अन्वेषण के मूल बीज जैनदर्शन के एकेन्द्रियजीववाद और चैतन्य-निरुपण में छिपे हुए थे। जैनदर्शन जिन्हें पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु के एकेन्द्रिय जीव कहता है उन्हें आज के प्राणी तत्ववेत्ता M crospic Or. ani ms कहते हैं। वनस्पति में प्राण हैं वह हर्ष-शोक का अनुभव करती है, पौधेहँसते हैं और रोते भी हैं, इत्यादि विज्ञानाचार्य जगदीशचन्द्र बोस ने अपने प्रयोगों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखा दिया है । अतः वनस्पति में जीव हैं इस विषय में अब किसी को सन्देह नहीं रहा । जो बात विज्ञान ने आज सिद्ध की है वही बात हजारों वर्ष पहले जैनधर्म कह चुका था। जैनशास्त्रों में चेतना के तीन रूप बताये हैं:-कर्मफलानुभूति, कार्यानुभूति और ज्ञानानुभूति । स्थावर जीव-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और .वनस्पति के जीव-केवल कर्म फल का वेदन करते हैं। त्रस जीव-दो, तीन,
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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