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________________ जैन-गौरव-स्मृतियां हुआ भी नाना प्रकार के आभूषणों के रूप में उत्पन्न होता रहता है और नष्ट होता रहता है, हार को तोड़ कर कुएडल बनाये जाने पर हार का नाश और कुण्डल का उत्पादन देखा जाता है परन्तु स्वर्ण तो दोनों दशा में कायम रहता है, इसी तरह द्रव्य भी अपने मूल स्वरूप में अवस्थित रहता हुआ भी नाना पीयों के रूप में परिणत होता रहता है । यही द्रव्य को परिणामित्व है। __ भारतीय और पाश्चात्य दर्शनों में वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में दो विरोधी मत दिखाई देते हैं। एक पक्ष का कथन है कि पदार्थ ही सत्य तत्त्व है, इसके ऊपर जो परिवर्तन होते हुए दिखाई देते हैं वह असत् हैं और वह भ्रमणा है, वस्तु के आकार कोई महत्व नही है, जैसे घड़ा, सिकोरा आदि मिट्टी के बने हुए पदार्थ में सत्य वस्तु मिटूटी है न कि उनका आकार । आकार कुछ भी हो उसका महत्त्व नहीं है, मूल वस्तु तो मिट्टी है। छान्दोग्य उपनिषत् में आरूणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को कहता है: यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृण्मयं विज्ञातं, स्याद्वाचाऽ इम्भणं विकारो वा नामधेयं मृतिकेत्येव सत्यम्" . अर्थात्-हे सौम्य । मिट्टी के एक पिण्ड से मिट्टी के बने हुए सब पदार्थ जान लिये जाते हैं, अलग २ नाम तो मात्र वाणी का विकास है, वस्तुतः मिट्टी सत्य पदार्थ है। उक्त मत वेदान्त, सांख्य आदि कूटस्थ नित्य वादियों का है। दूसरा पक्ष कहता है कि-वस्तु जो में गुण दिखाई देता है वही सत्य है। इस गुण के मूल में कोई अचल पदार्थ हो ही नहीं सकता क्योंकि जगत में अचल वस्तु तो कोई है ही नहीं। संसार में सब क्षणिक और नश्वर है । यह मान्यता बौद्धदर्शन की है। उक्त दोनों विरोधी मान्यताओं के बीच जैनदर्शन कुशल न्यायाधीश की तरह अपना मन्तव्य उपस्थित करता है कि वस्तु का मूल स्वरूप और उसके गुण आकार आदि दोनों ही सत्य हैं। मिट्टी भी सत्य है और उसका घटादि आकार भी सत्य है। स्वर्ण भी सत् है और उसके हार कुण्डलादि
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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