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________________ जैन-गौरव-स्मृतियां . . . पल विशेष प्रकाशित करता है तो वह प्रमाद पर विजय पाकर विशेष अप्रम बन जाता है। ऐसी अवस्था में वह ऐसी शक्ति-संचय की तैयारी करता है। जिससे वह शेष रहे हुए मोह को नष्ट कर सके । मोह के साथ होने वार लड़ाई की तैय्यारी की इस भूमिका को आठवां गुणस्थान कहते हैं । पह कभी न हुई ऐसी आत्म-विशुद्धि इस गुणस्थान में हो जाती है । जिस कारण कोई आत्मा तो मोह के संस्कारों को क्रमशः दबाता हुआ आगे बढ़ . . जाता है और अन्त में उसे बिल्कुल उपशान्त कर देता है। कोई विशि आत्मा ऐसा भी होता है जो मोह की शक्ति को क्रमशः जड़मूल से उखाड़ता हु आगे चला जाता है और अन्त में उसे सर्वथा निर्मूल ही कर डालता है इस प्रकार आठवें गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले आत्मा दो श्रेणियों विभक्त हो जाते हैं। जो आत्मा मोह को दबाते हुए आगे बढ़ते हैं वे पश श्रेणी वाले कहे जाते हैं और जो मोह को उखाड़ते हुए आगे बढ़ते हैं वे क्षप श्रेणी वाले कहे जाते हैं। उपशम श्रेणी वाला आत्मा नौवें और दसवें गुर स्थान में मोह को उत्तरोत्तर उपशान्त करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान में जा है। वहां वह दबा हुआ मोह पुनः जागृत होता है और वह आत्मा को अवर नीचे गिरा देता है । ग्यारहवां गुणस्थान अधः पतन का स्थान है। इस गुर : स्थान में उपशम श्रेणी वाले आत्मा ही जाते हैं । जो आत्मा आठवेंगुणस्थ से आगे मोह के संस्कारों को निमूल करते हुए आगे बढ़ते हैं वे नौवें श्र - . दसवें गुणस्थान में मोह के संस्कारों को उत्तरोत्तरनिर्मल करते हुए सीधे बारह गुणस्थान में मोह को सर्वथा निर्मूल कर देते हैं । क्षपक श्रेणी वाले आत मोह को क्रमशः क्षय करते हुए इतना आत्मबल प्रकट कर लेते हैं कि वे उपश ' श्रेणी वाले आत्मा की तरह मोह से हार नहीं खाते हैं और उसको सर्वर क्षीण करके बारहवीं भूमिका को प्राप्त कर लेते हैं । इस भूमिका को पाने वाद 'आत्मा फिर कदापि नीचे नहीं गिरता है। ... जो आत्माएँ ग्यारहवें गुणस्थान में मोह से हार खाकर नीचे गि जाती हैं वे चाहें गिरती २ प्रथम भूमिका पर ही क्यों न पहुँच जाएँ पर उनकी यह अधोगति कायम नहीं रहती। वे हारी हुई आत्माएँ समय पाव द्विगुणित उत्साह से शक्ति संघय करती हैं और क्षपक श्रेणी के द्वारा में का सर्वथा क्षय भी कर डालती हैं।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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