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________________ >>> जैन- गौरव स्मृतियां ★ ★ • भूमिकाओं से पहले किया जा चुका है। चतुर्थभूमिका में आत्मा को निजस्वरूप का भान हो जाता है अतः वह विकासगामी आत्मा पौद्गलिक सुखों से ऊपर उठकर अपनी वास्तविकं स्थित को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने लगता है दर्शनमोह को शिथिल करने के वाद स्वरूपदर्शन कर लेने पर भी जबतक चारित्रमोह को शिथिल न किया जाय वहाँ तक स्वरूप स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती हैं । अतः वह आत्मा चारित्र मोह को शिथिल करने का प्रयत्न करता है । जब वह आंशिक रूपमें इस शक्ति को शिथिल कर पाता है तो उसका और भी विकास हो जाता है । वह अंशतः परिणति का त्याग करता है जिसमें उसे विशेष आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। इस भूमिका को देशविरती कहते हैं । यह पाँचवीं भूमिका है । • इस भूमिका में लिये गये अल्पविरतित्व से प्राप्त होने वाली आत्मिक शान्ति से प्रेरित होकर विकासगामी आत्मा सम्पूर्ण विरती को धारण करने के लिए उत्साहित होता है । वह चारित्र मोह को और भी अधिक शिथिल करके पहले की अपेक्षा अधिक स्वरूप स्थिरता प्राप्त करने की चेष्टा करता है । वह सर्व विरतिरूप संयम धारण करता है। पौद्गलिक भावों से सर्वथा आसक्ति हटा कर आत्म-स्वरूप की अभिव्यक्ति करने की दिशा में ही इसके सारे प्रयत्न होते हैं । यह सर्वविरति रूप छठा गुणस्थान है । इस अवस्था में पाँचवे गुणस्थान की अपेक्षा स्वरूप की विशेष अभिव्यक्ति होने पर भी प्रमाद जनित बाधाएँ उपस्थित होती हैं । विकास गामी आत्मा अपनी आत्मिक शान्ति में प्रमाद-जनित बाधा को भी सहन नहीं कर सकता अतः वह उसे भी दूर करने का प्रयत्न करता है । वह अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए ध्यान-मनन- चिन्तन के सिवाय अन्यः सर्व व्यापारों कां त्याग कर देता है | यह 'अप्रमत्तसंयत' नामक सातवीं भूमिका है। एक ओर आत्मा प्रमाद को नष्ट करने का प्रयत्न करता है और दूसरी ओर प्रमाद उसे अपने अधीन करना चाहता है । इस स्थिति में वह आत्मा कभी तो प्रमाद् की तन्द्रा में और कभी अप्रमादकी जागृति में आता जाता रहता है । अर्थात् वह आत्मा कभी छठे और कभी सातवें गुणस्थान में आता-जाता रहता है। : प्रमाद के साथ होने वाले संघर्ष में विकासगामी आत्मा अपना चारित्र *: XXXUXXOX २२६)
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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