SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां शरीर में 'हीं लीन हो जाता है। न वह कहीं दूसरे लोक से आया है और न कहीं दूसरे लोक में जाता है। यह क्यों न मान लिया जाय? आत्मा परलोक से आती है. और पुनः परलोक में जाती है इसका क्या प्रमाण है ? ........ .... ....... यह शंका करना ठीक नहीं है । आत्मा स्वरूप से अमूर्त है इसलिए वह दिखाई नहीं देती । यद्यपि कर्मों के कारण वह तैजस कार्मण शरीर युक्त होती है तदपि ये शरीर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देते हैं। इसलिए शरीर में प्रविष्ट होती हुई और निकलती हुई आत्मा दिखाई नहीं देती। दिखाई नहीं देने मात्र से उसका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है। पितामहः प्र-पितामह आदि दिखाई नहीं देते इससे उनका अभाव था.ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है। सूक्ष्म शरीर युक्त होते हुए भी आत्मा आता जाता हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता यदेपि निम्न चिन्हीं के द्वारा उसका आवागमन सिद्ध होता है:-:' ... :: .. .... : (१) प्रत्येक प्राणी को अपने शरीर का बड़ा अनुराग हुआ करता. है । अभी अभी उत्पन्न हुआ लघु कीट भी अपने शरीर की सुरक्षा चाहता है. घातक या बाधक कारणों के उपस्थित होते ही वह भागने लगता है। यह उसके शरीर के प्रति अनुराग को सूचित करता है। जिसे जिस विषय का अनुराग होता है वह उससे चिर परिचित और अभ्यस्त होता है। जन्म लेते ही शरीर के प्रति प्राणिमात्र को, अनुराग देखा जाता है वह इस बात को. सूचित करता है कि यह प्राणी शरीर-धारण करने का अभ्यस्त है। इसने इस जन्म के पहले भी शरीर धारण किये हैं तभी तो शरीर के प्रति इसने इतना अनुराग है। इससे सिद्ध हो होता है कि प्राणी ने जन्मान्तर में भी शरीर धारण किये हैं। इससे जन्मान्तर से आना सिद्ध होता है। । (२) आज के उत्पन्न हुए वालक में स्तन-पान की इच्छा देखी जाती है। यह इच्छा पहली इच्छा नहीं है क्योंकि जो: इच्छा होती है वह अन्य इच्छा पूर्वक होती है जैसे दो तीन. वर्ष के बालक की इच्छा. । स्तन-पान की . इच्छा भी इच्छा है इस लिए वह पहले पहल नहीं हुई किन्तु उसके पूर्व की इच्छा से उत्पन्न हुई है। जिसने जिस पदार्थ का उपयोग न किया हो उसे.
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy