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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां रहती है, इसी प्रकार कर्म के अनुसार ही फल होता है तदपि फलोत्पत्ति में ईश्वर कारण है। इस तरह न्यायदर्शन कर्म का साक्षाद् फलभोग न मानते हुए ईश्वर को कर्मफल नियन्ता मानता है। ... . . .: यह मान्यता वौद्ध और जैनदर्शन के विपरीत है। इन दोनों दर्शनों का मन्तव्य है कि कर्म-फल के लिए किसी दूसरी शक्ति के नियंत्रण की आवश्यकता नहीं है। कर्म अपना फल अपने आप देता है । ईश्वर को इसमें हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह कहा जा सकता है कि प्राणी बुरे कर्म तो कर लेता है परन्तु वह उसका फल भोगना नहीं चाहता अतः उसे कर्मफल देने वाली कोई दूसरी शक्ति माननी चाहिए। परन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि प्राणी के चाहने या न चाहने से कर्म अपना फल देते हुए नहीं रुक सकते हैं। प्राणी जब तक कर्म नहीं करता है वहाँ तक वह स्वतन्त्र है परन्तु जब वह कर्म कर चुकता है तो वह उस कृतकर्म के अधीन हो जाता है । अतः उसके न चाहने पर भी कर्म अपना फल उस पर प्रकट कर देता है। जैसे एक व्यक्तिं गर्म पदार्थ खाकर धूप में खड़ा हो जाय और फिर चाहे कि मुझे प्यास न लगे तो उसके चाहने मात्र से प्यास लगे विना नही रह सकती है । वे गर्म पदार्थ अपना असर बताए विना नहीं रह सकते इसी तरह कर्म भी अपना फल दिये विना नहीं रहते । अतः कर्म और कर्मफल के बीच में किसी और शक्ति का हस्तक्षेप उचित नहीं प्रतीत होता। - यह भी शंका की जा सकती है कर्म जड़ है इसलिए वे जीव को.. फल देने में कसे समर्थ हो सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि जीव के . साथ कर्म जव सम्बद्ध होते हैं तब उनमें कर्म-फल देने की शक्ति उसी तरह प्रकट हो जाती है जैसे नेगेटिव और पोजिटिव तारों के मिश्रण से विजली। अतः कर्म और उसके फल के लिए किसी तीसरी शक्ति की उसी तरह आवश्यकता नहीं है जैसे शराब का नशा लाने के लिए शराबी और.. शराव के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति की। अतः जीव स्वयं अपने कमाँ का कर्ता है और स्वयं उसके फल का भोक्ता है यह मान्यता ही उचित और संगत है। न्यायदर्शन ने जो कर्म-फल के विषय में आपत्ति उपस्थित करते. हुए कहा कि पुरुपकृत प्रयल कभी निष्फल : भी जाते हुए देखे जाते हैंइसका जैनाचार्यों ने सुन्दर समाधान किया है। उन्होंने कहा कि कर्म का फलं कभी व्यर्थ नहीं होता है. इसका फल-जल्दी या देर से कभी न कभीअवश्य प्राप्त होता है।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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