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________________ ★ जैनगौरव-स्मृतियां फूलते हैं और विश्व के समस्त कार्य व्यवस्थित और नियमित होते रहते हैं संसार के रंगमंच पर देहधारियों को नचानेवाला सूत्रधार, कर्म ही है। इस के आगे किसी का कुछ वश नहीं चलता । इस प्रकार कर्म का अखण्ड शासन सारे विश्व पर चल रहा है । कोई भी प्राणी- जब तक वह कर्म के बन्धनों को तोड़ कर स्वतन्त्र नहीं हो जाता जब तक -- कर्म के अविचल नियम से वच नहीं सकता | चाहे वह आकाश में चला जाय, दिशाओं के पार पहुँच जाये, समुद्र में घुस कर बैठ जाय, इच्छा हो वहाँ चला जाय परन्तु उसके कर्म उसे कहीं नहीं छोड़ते वे तो छाया की तरह उसके साथ ही रहने वाले हैं। इस प्रकार भारतीय तत्ववेत्ताओं ने कर्म की अविचल सत्ता को स्वीकार किया है । ऐसा होते हुए भी कर्म-सिद्धान्त का जैसा स्पष्ट, सर्वाङ्ग पूर्ण और सुन्दर विवेचन जैनधर्म तथा जैनदर्शन में किया गया है वैसा और किसी भी दर्शन में नहीं किया गया है। मीमांसक दर्शन में इतना ही कहा गया है। कि जो वैदिक कर्म-कांड करता है उसे स्वर्ग में सुखादि की प्राप्ति होती है । इसके सिवाय कर्म की प्रकृति उसका फल भोग आदि विषयों में उसने कोई स्पष्टीकरण नहीं किया । वेदान्त दर्शन भी ब्रह्मादेत वाद की सिद्धि करने में ही लगा रहा है उसने भी इस विषय में कोई विशिष्ट विवेचन नहीं किया । सांख्य और योग दर्शन के लिए भी यही बात है । वैशेषिक दर्शन में भी कर्म की तात्विक आलोचना नहीं है। ऐसा होते हुए भी जीव अपने कर्मों के कारण ही सुख दुःख आदि भोगते हैं, यह बात सब स्वीकार करते हैं । न्याय दर्शन, वौद्ध दर्शन और जैनदर्शन ने कर्म के विषय में ठीक २ विचार किया हैं । इनमें क्या २ साम्य और वैषम्य हैं यह दिक सूचन करना यहाँ प्रसंगतः आवश्यक है । न्यायदर्शन कर्म को पुरुषकृत मानता है और उसका फल भी होना चाहिए, यह भी स्वीकार करता है परन्तु उसका कहना है कि कई बार पुरुषकृत कर्म निष्फल भी होते देखे जाते हैं इसलिए वह कर्म और उसके फल के बीच में एक नवीन कारण - ईश्वर को स्थान देता है । उसका मन्तव्य है कि "कर्म अपने आप फल नहीं दे सकता है । यह निश्चित है कि फल कर्म के अनुसार ही होता है तदपि उसमें ईश्वर काररण है । जैसे वृक्ष बीज के अधीन है तदपि वृक्ष की उत्पत्ति में हवा, पानी, प्रकाश की आवश्यकता
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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