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________________ SSS जैन-गौरव-स्मृतियार में भी समान रूप से है। सकल परमाणुओं में व्यापक आत्मा सब परमाणुओं को आकृष्ट करें तो परिस्थिति वहीं आ सकती है । यदि अदृष्ट के कारण उपयोगी परमाणुओं का आकृष्ट होना ही मानते हो तो आत्मा के देह प्रमाणपक्ष में भी अदृष्ट के कारण ऐसा होना कहा जा सकता है। . नैयायिक यह कहते हैं कि यदि आत्मा को देह प्रमाण माना जाय तो आत्मा भी मूर्त हो जाएगी। यदि आत्मा मूर्त है तो शरीर में उसका । प्रवेश कैसे हो सकेगा ? क्योंकि एक मूर्त द्रव्य, में दूसरे मूर्त द्रव्य का प्रवेश कैसे हो सकता ? दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा देह प्रमाण है तो वालक शरीर के बाद युवक शरीर के रूप में वह कैसे. परिणत हो सकेगी ? यदि वह बोलक शरीर प्रमाण को छोड़कर युवक शरीर ग्रहण करती है तो वह शरीर की तरह अनित्य हो जाएगी। इत्यादि। इसके उत्तर में जैनदर्शन कहता है कि मूर्तत्त्व का अर्थ यदि देह प्रमाणत्व से है तब तो यह हमें मान्य है । हम कथञ्चित् रूप से आत्मा को सावयव या मूर्त मानते हैं परन्तु मूर्त्तत्व का अर्थ रूपादिमान हो तो हम यह कहते हैं कि असर्वगत या देह परिमाण होने से कोई मूर्त ( रूपी) होना ही चाहिए; यह आवश्यक नहीं है। तुम्हारे मत में मन असर्वगत है फिर भी तुम उसे मूर्त नहीं कहते हो । शरीर में जैसे मन का प्रवेश होता है उसी तरह आत्मा के लिए भी समझ लेना चाहिए । भस्मादि मूर्त पदार्थ में जल आदि मूर्त पदार्थ का प्रवेश हो जाता है तो अमूर्त आत्मा का शरीर में प्रवेश कैसे नहीं होसकेगा ? "बाले शरीर और युवक शरीर के क्रमशः त्याग और धारण करने से आत्मा अनित्य हो जाएगी" यह तुम्हारा कथन हमें मान्य है। हम कथञ्चित् रूप से आत्मा को अनित्य भी मानते हैं । प्रत्येक पदार्थ परिणामी है । साँप जैसे कुण्डावस्था को छोड़कर सरल अवस्था में आजाने पर भी वह सर्प ही है उसकी पर्याय में अन्तर अवश्य हुआ है। इसी तरह बाल-शरीर को छोड़कर युवक-शरीर धारण करने वाली आत्मा वही है पर उसकी पर्याय में परिवर्तन अवश्य होता है इस परिवत्तन की अपेक्षा प्रात्मा अनित्य है और द्रव्य की अपेक्षा नित्य है। अतः तुम्हारे द्वारा उपस्थित की गई आपत्ति निर्मूल है। आत्मा को सर्वव्यापी मानने से सब आत्माओं का परस्पर एकीकरण हो जाने से प्रति व्यक्ति को होने वाला सुख-शास्त्र का पृथक् पृथक् अनुसब न हो सकेगा । आत्मा को सर्वव्यापी मानने पर एक व्यक्ति को सुख का अनुभव
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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