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________________ जैन-गौरव-स्मृतियां * - हैं इसका स्पष्टीकरण इस गाथा से हो जाता है: पुग्गल कम्सादीणं कत्ता ववहारदो दुनिच्छयदो। चेदणकम्माणादा सुद्धनया सुद्धभावाणं ।। (द्रव्यसंग्रह) आत्मा व्यवहार दृष्टि से पुद्गल-कर्म समूह का कर्ता है. आशुद्ध निश्चय नय के अनुसार आत्मा रागद्वपादि चेतन (भाव ) कर्म का कर्ता है और शुद्ध निश्चय नय के अनुसार वह अपने शुद्ध भाव समूह का कर्ता है। यह आत्मा का कर्तृत्व समझना चाहिए। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा सर्व. व्यापक नहीं है; वह स्व स्व देह प्रमाण है। जिस जीव का जितना बड़ा या छोटा शरीर है उसमें ही उसकी आत्मा रही हुई है। जैसे दीप-ज्योति का संकोच और स्वदेह परिमाणतत्व विस्तार होता है उसी तरह आत्म-प्रदेशों में भी ऐसी शक्ति हैं वे देह-प्रमाण संकुचित या विस्तृत हो जाते हैं। अतः प्रदेशों की अपेक्षा समान होने पर भी कीड़ी की आत्मा इतने छोटे से शरीर में ही है और हाथी की आत्मा हाथी के शरीर में ही है। __ जैनचार्यों ने कई युक्तियों से आत्मा का स्वदेह परिमाणत्व सिद्ध किया है । वे कहते हैं कि आत्मा स्वदेह प्रमाण है क्यों कि उसका चैतन्य गुण शरीर व्यापी ही है । जिसका गुण जहाँ देखा जाता है वह वहीं रहता है अन्यन्त्र नहीं । जैसे घट के रूपादि गुण जहाँ पाये जाते हैं वहीं घट होता है, सर्वत्र नहीं । वैसे ही आत्मा का चैतन्य गुण शरीर में ही पाया जाता है अतः आत्मा को शरीर व्यापी ही मानना चाहिए; सर्वव्यापी नहीं। ... न्याय, वैशेपिक, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शन यात्मा को सर्व व्यापक मानते हैं । न्यायाचार्य कहते हैं कि यदि आत्मा व्यापक पदार्थ न हो तो अनन्तदिग्देशवी उपयुक्त परमाणुओं के साथ उसका संयोग नहीं हो सकता। और इस संयोग के बिना शरीर की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती है। उसका उत्तर देते हुए जैनचार्यों ने कहा कि परमाणुओं को आकृष्ट करने के लिए आत्मा को व्यापक मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे चुम्बक दूर रहा हुआ ही लोहे को खींच सकता है उसी तरह अात्मा देह प्रमाण रहता हुश्रा भी दूरस्थ पुद्गलों को याष्ट कर सकता है । यदि कहा जायकि इस तरह तो तीन लोक के परमाणु श्रात्मा के द्वारा आकृष्ट हो सकते हैं। तो शरीर कितना बड़ा बन जायगा ? यह दोप तो आत्मा के सर्वव्यापकल
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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