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________________ Sciet जैन-गौरव-स्मृतियां SS । है । अतः उससे भवरूपी अंकुर नहीं उत्पन्न हो सकता । मोक्ष में गया हुआ जीव पुनः संसार में जन्म नहीं लेता क्योंकि जन्म-मरण .. अवतार वाद के चक्र से छूटने का नाम ही तो मोक्ष है। अगर पुनः जन्म होना शेष रह गया तो मुक्ति ही क्या हुई ? जैन दर्शन मुक्तात्मा का पुनः अवतार होना नहीं मानता।। - कई दर्शनों की यह मान्यता है कि जब दुनिया में पाप बढ़ जाता है और अपने धर्म की हानी होती है तब ईश्वर पुनः संसार में अवतार धारण करता है । यह मान्यता बुद्धिसंगत प्रतीत नहीं होती। क्योंकि जब कारणों का नाश हो जाता है तब कार्य का भी नाश होता है, यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। मुक्त अवस्था में ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे पुनर्जन्म रूप कार्य हो। जिस प्रकार बीज के अत्यन्त दग्ध होनेपर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता है इसी तरह कर्म रूपी बीज के जल जाने पर पुनः भवरूपी अंकुर कैसे फूट सकता है ? कहा है: दग्धे वीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्म वीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ।। जहाँ जन्म है वहाँ मरण अवश्यंभावी है । जहा जन्म-मरण है वहाँ ईश्वरत्त्व कैसे संभव है ? अतः मुक्तात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता यह मान्यता ही तर्कसंगत प्रतीत होती है। मुक्तात्मा सब प्रकार के संग से रहित है। वह न स्त्री है, न पुरुप है और न नपुंसक है। मुक्त जीव परिज्ञाता है । वह लोकालोक को जानता है, देखता है अतः संज्ञ ज्ञानदर्शन युक्त है । मुक्तात्मा अनुपमेय है । उनके ज्ञान और सुख की समानता करने वाला अन्य नहीं है अतएव उन्हें कोई उपमा से नहीं पहचाना जा सकता है वह अद्वितीय हैं । उनकी अरूपी सत्ता है वर्ण, गन्ध, श्रादि न होने से वाचक शब्द की गति नहीं है इसलिए "अपयस्स पयं स्थि" कहा गया है। सुक्तात्मा इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है अतः अनिर्वचनीय हैअनुभवगम्य है। उक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनदर्शन ईश्वर का क्या
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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