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________________ S e * जैन गौरव-स्मृतियाँ *SS माना जाता है। सुप्रसिद्ध हीगेल, शोपनहार आदि जर्मन दार्शनिक 'विश्वदेव वादी' माने जाते हैं । 'विश्वदेव वाद' का मूल सूत्र इस प्रकार है "जीव या अजीव जगत् के सब पदार्थ एकान्त सत हैं और सत् मात्र ईश्वर का विकास या परिणतिरूप है-ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अलग २ जीव और पदार्थ भले ही मालूम हो परन्तु मूल में सब एक हैं। ईश्वरीय सत्ता के कारण सब सत्तावान है; ईश्वर के प्राण के कारण सब प्राणवान् हैं । केवल एक ईश्वर है, दूसरा कुछ नहीं । जगत् पृथक है यह एक भ्रान्ति है।" __ शंकराचार्य का 'एकमेमाद्वितीयं ब्रह्म' और उक्त पाश्चात्य दार्शनिकों का 'विश्वदेव वाद' विल्कुल एक समान ही हैं। दोनों केवल ईश्वर को ही सत् मानते हैं और इस दृश्यमान जगत् को काल्पनिक कहकर असत्मिथ्या-ठहराते हैं। इस अद्वैतवाद और विश्वदेववाद की अनेक प्रसिद्ध दार्शनिकों ने आलोचना करके इसकी असंगति इस प्रकार प्रकट की है-"जगत् की वस्तुओं और भावनाओं का स्वरूप निश्चित करना ही तत्वविद्या का उद्देश्य है । विश्वदेववाद जगत् की प्रकृति निश्चित करने के स्थान पर जगत् को ही मूल से उड़ा देता है। इसकी संसार की यह व्याख्या कितनी विचित्र है । जगत् की वस्तुओं और भावनाओं की सत्यता मानने का भी यह निषेध करता है । यह वात कौन मान सकता है ? जगत के इतने सव पदार्थों में किसी प्रकार का भेद नहीं है, सब एक महासत्ता का विकास मात्र है-सब एक है, यह सिद्धान्त क्या प्रत्यक्ष-विरोध नहीं है ? जीवों में यदि कोई भेद नहीं है, वस्तुतः सब जीव एक महामान्य के विकास मात्र हैं तो फिर "खाधीन इच्छा" का क्या अर्थ ? फिर तो जीव जो शुभाशुभ कर्म करे उसके लिये कौन जवाबदार हो ? कोई इसके लिए जबावदार ही नहीं रहता है । पुण्य-पाप ही नहीं तो मुक्ति की क्या वात हो सकती है ?" ___जैनाचार्यों ने इस ब्रह्माहतवाद और विश्वदेववाद का प्रबल खण्डन किया है। उनका कहना है कि जगत की अनेकानेक वस्तुएँ और विविधताएँ
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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