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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियार .. उक्त विशिष्टाद्वैतवाद की मान्यता भी बुद्धिगम्य नहीं है । शुद्ध परमात्मा जगत् के रूप में किस तरह परिणित हो सकता है ? चेतनरूप ईश्वर अचेतन प्रकृति के रूप में कैसे प्रकट हो सकता है ? "एकोऽहं बहु स्याम” अर्थात्, ईश्वर को इच्छा हुई कि मैं अकेला हूँ इसलिए बहुरूप होऊँ। यह इच्छा हुई और उसने मायाकी सृष्टि की और उससे यह संसार उत्पन्न हुआ। यह मान्यता भी बुद्धि संगत नहीं है। ईश्वर में इच्छा का. सद्भाव बतलाना उसकी . अपूर्णता प्रकट करना है। जहाँ अपूर्णता है वही इच्छा है। जहां पूर्णता है वहां किसी तरह की इच्छा नहीं हो सकती । ईश्वर तो पूर्ण है, कृतकृत्य है उसे किसी तरह की इच्छा नहीं हो सकती। अतः यह मान्यता भी असंगत है। "ब्रह्म" ही वास्तविक तत्व है इसमें अतिरिक्त जो भी प्रतीत होता है वह सर्व असत् है-मिथ्या है जगत् के नानाविध दृश्य ब्रह्म के ही रूपान्तर ' हैं। ब्रह्म ही उनमें प्रतिबिम्बित होता है। ब्रह्म के अति'अद्वैतवाद की रिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। जो कुछ भी दिखाई देता मान्यता है वह स्वप्न के समान मिथ्या है। माया के द्वारा ऐसा .. आभास होता है। "वस्तुतः सर्व ब्रह्ममयं जगत्" ( सारा जगत् ब्रह्ममय ही है) यह शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित ब्रह्माद्वैत वाद है। इसके अनुसार तो. विश्व की सत्ता ही उठ जाती है। यह तो विश्व को असत बतलाता है। इस लिए उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं होता है। ... पाश्चात्य दार्शनिकों में भी यह वाद पर्याप्त विकसित हुआ है। उनका मानना है कि जीव और ईश्वर को अलग २ मानने से ईश्वर का स्वरूप बहुत ही मर्यादित बन जाता है इसलिए वे ईश्वर के अतिरिक्त और किसी सत्ता या सत्त्व को स्वीकार नहीं करते हैं। इन दार्शनिकों को 'पान-थि इस्ट' कहा जाता ... है। प्राचीन ग्रीक दार्शनिक पामोनेडिस या इलियाटिक सम्प्रदाय के दर्शन में . .. "पान थि-इज्म" का आभास मिलता है । प्लेटो के सिद्धान्तों को एरिस्टोटल ने जो नवीन रूप दिया है उसमें भी यही वाद भरा हुआ है। दार्शनिक चूडामणि स्पिनोजा वर्तमान युरोप का इस 'विश्वदेव वाद' का महान् प्रवर्तक ,
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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