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________________ Se* जैनगौरव-स्मृतियों में कार्य और अपरिग्रह का के बिना अहिंसा । इसीलिए जैन .. अहिंसा की आराधना और साधना के लिए जैनधर्म ने सत्य, अचौर्य । ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को आवश्यक माना है । अतः इन्हें अहिंसा के समान .. ही महत्व दिया है। भावना के बिना अहिंसा का पालन नहीं किया जा सकता है। अपरिग्रह में अहिंसा के बीज रहे हुए हैं। इसीलिए जैनधर्म ने अपरिग्रह पर भी विशेष भार दिया है। जैनधर्म नियन्थ धर्म भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इसके उपदेशक त्यागी-मुनिजन सब प्रकार के परिग्रह से रहित होते हैं। . . . . . . . . . . :::: ' आज संसार का वातावरण इतना संक्षुब्ध है, इसका कारण परिग्रह ही है। परिग्रह हिंसा है। परिग्रह के वश में पड़े हुए मानव ने अपने हाथ से ऐसे दुःखों का निर्माण कर लिया कि अब वह स्वयं उनमें फंस कर परेशान हो रहा है और दूसरों को भी अशान्त बना रहा है। मानव इस अशांति का अन्त हिंसा से करना चाहता है। ..वह शस्त्र बढ़ा कर, परमाणु . चम-उदजन वम का आविष्कार कर और नवीन २ संहारक साधनों के अन्वेषण की होड़ कर संसार में शान्ति कायम करना चाहता है परन्तु यह ठीक इसी तरह असम्भव है जैसे आग को घी डाल कर शान्त करना । हिंसा का अन्त हिंसा से नहीं किया जा सकता है। अशान्ति के साधनों से शान्ति नहीं प्रोप्त की जाति सकती है। यदि विश्व को शांति की अभिलाषा है तो वह केवल अहिंसा से ही प्राप्त हो सकती है। आज पश्चिमी दुनिया युद्ध के झंझावत से गुस्त है । न केवल पश्चिमी दुनिया ही बल्कि सारी दुनिया युद्ध के भय से संत्रस्त है। इस समय जैनधर्म का गगनभेदी सन्देश यही है कि "युद्ध से किसी समस्या का हल नहीं होता"। यदि शान्ति की चाह है तो अहिंसा ही उसकी राह है । यदि दुनिया ने शीघ्र ही इस मर्म को नहीं समझा तो मानव जाति का विनाश हो जायगा । इस विषम वातावरण में आवश्यक है कि जैनधर्म के अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त का अनुशीलन किया जाय । ऐसा करने में ही मानव जाति का कल्याण है । अहिंसा भगवती की आराधना से ही विश्व में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है, सब संघर्षों का अन्त हो सकता है और सब समस्याओं का समाधान सुलभ हो सकता है। . . भौतिकवाद की आँधी में फंसा हुआ विश्व अब अपने आपको सँभाले, इसी में कल्याण है। यह भौतिकवाद संसार को शांति देने वाला सिद्ध नहीं
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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