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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां SS C निरर्थक हिंसा. है। इनमें से श्रावक निरपराध त्रस जीवों को संकल्पी हिसा' का और निरर्थक आरम्भजा हिंसा का त्यागी होता है । वह अपराधी जीवों की संकल्पी हिंसा और सार्थक आरम्भजाः हिंसा का त्यागी नहीं होता । : : ... मनुष्य को अपनी, स्त्री, पुत्र आदि कुटुम्बीजन की, समाज व राष्ट्र की डाकू, लुटेरे, शत्रु आदि विरोधी प्राणियोंसे रक्षा करनी पड़ती है। ऐसी दशा में उत्तम वात तो यह है कि मनुष्य अपनी आत्मिक शक्ति के द्वारा शान्ति के साथ शत्रुओं का प्रतिरोध करे और अपना जीवन देकर भी आश्रितों की रक्षा करें। परन्तु यदि मनुष्य में शान्ति के साथ आत्मिक शक्ति के द्वारा प्रतिरोध करने का सामर्थ्य न हो तो उसके लिए उचित है कि वह शस्त्र द्वारा भी विरोधी शक्तियों के आक्रमण का प्रतिरोध करे | यदि अपनी; आश्रितमान एवं समाज व राष्ट्र की रक्षा करने में आक्रान्ता का संहार भी हो जाय तो भी गृहस्थ के अहिंसा अणुव्रत का भंग नहीं होता। क्योंकि उसकी भावना हिंसा करने की नहीं है । डाकू. लुटेरे व शत्रुओं के आक्रमण होने पर भय से कम्पित होकर उनके वश हो जाना या भाग.जाना कदापि उचित नहीं है। भय-दुर्बलता है, कमजोरी है । भयभीत होने वाला व्यक्ति अहिंसाधर्म का पालन नहीं कर सकता है। अतः गृहस्थ के व्रत में इतनी छूट है कि वह अपराधी व विरोधी तत्त्वों को दण्डित कर सकता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति विरोध का साहसपूर्वक मुकाबला कर अपना उत्तरदायित्व निभा सकता है। .. .. . . .. ... . . . " जैन श्रावक को अहिंसा की मर्यादा उसके जीवन व्यवहार में किसी तरह बाधक नहीं होती । अहिंसा की यह मर्यादा इतनी उदार है कि किसी भी श्रेणी का व्यक्ति इसे अपना सकता है। प्राचीन काल में बड़े २ चक्रवती सम्राट भी जैन श्रावक हो गये हैं। उनका श्रावकत्व उनके दायित्व का निर्वाह करने में बाधक रूप नहीं हुआ । राजा, मंत्री, सेनापति, पुलिस अधिकारी, डाक्टर, वकील, न्यायाधीश, व्यापारी, कृषक, नौकर-चाकर, शिल्पी इत्यादि प्रत्येक श्रेणी का व्यक्ति श्रावक हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अहिंसा की इस. मर्यादा में रहकर अपने जीवन व्यवहार का संचालन भली भांति कर सकता है। इसलिए जैनधर्म में प्रतिपादित अहिंसा को अव्यवहारी कहना सर्वथा मिथ्या है: महात्मा गांधी ने कहा है कि:- . ... ... ... . . . .
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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