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________________ ★ जैन-गौरव-स्मृतियां गया है । अहिंसा को केन्द्र मान कर ही अन्य बातों पर विचार किया गया है। जिन २ विचारों और आचारों से अहिंसा का पोषण होता है वे सब धर्म:. के अन्तर्गत हैं और आचार-विचार अहिंसा के विरोधी या बाधक हैं। वे । सब अधर्म माने गये हैं । अहिंसा ही जैनधर्म के लिए वह कसौटी है जिस पर कस कर वह किसी आचार या विचार की. सत्यासत्यता.या ग्राह्यताअग्राह्यता का निर्णय करता है। अहिंसा का सिद्धान्त ही जैनधर्म का मुख्य ... आधार है । अहिंसा की आराधना से ही जैनधर्म की आराधना है। ::: यह एक माना हुआ सत्य है कि अहिंसा की प्रतिष्ठा करने वाला यदि कोई है तो वह, जैनधर्म है। जैनधर्म के कारण संसार में अहिंसा की प्रतिष्ठा हुई। यह भी उतना ही सत्य है कि अहिंसा के कारण ही जैनधर्म की विश्व में प्रतिष्ठा है। जैनधर्म ने अहिंसा की प्रतिष्ठा की और अहिंसा ने जैनधर्म की प्रतिष्ठा की । अहिंसा और जैनधर्म एक दूसरे में ओत प्रोत हैं। जैनधर्म में अहिंसा व्रत को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। साधु और श्रावक के लिए पहला नियम अहिंसा का ही है । जैन श्रमण अपने पहले व्रत में मन, वचन और काया के द्वारा अहिंसा का पालन करता है। वह सब प्रकार के जीवों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त हो जाता है। वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता है जिससे किसी भी जीव को कष्ट पहुंचे। अहिंसा की सम्पूर्ण आराधना करना ही उसका ध्येय रहता है और यही उसका प्रयत्न होता है। जैन श्रावक भी अपने पहले व्रत में हलन-चलन करने वाले प्राणियों की जान-बूझकर हिंसा करने का त्याग करता है । सूक्ष्म स्थावर जीवों की हिंसा से बचना गृहस्थ के लिए कठिन है अतः सम्पूर्ण अहिंसा का लक्ष्य रखते हुए वह मर्यादित अहिंसाका व्रत अंगीकार करता है । वह संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है । जीवन-व्यवहार में सूक्ष्म स्थावर जीवों की हिंसा अनिवार्य है अतः लाचारी मान कर वह रुक्ष भाव से जीवन-व्यवहार चलाता है। उसके परिणामों में हिंसा नहीं होती। इस तरह साधु हो या श्रावकसब के लिए अहिंसा धर्म का पालन करना जैन-धर्म में अनिवार्य है। . .. जैनधर्म में अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन किया है। इसके अनुसार . संसार में दो प्रकार के प्राणी है-एक व्यक्त चेतना वाले दूसरे अव्यक्त नेतना वाले । जिनकी चेतना व्यक्त है, जो चल फिर सकते हैं वे त्रस
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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